मंगलवार, 12 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी भाग-1


अकेली स्त्री अगर किसी पर भरोसा करे तो उसे सहज उपलब्ध मान लिया जाता है |


बात 2012 की है,रात के दस बजे मैं नामपल्ली पब्लिक गार्डेन के इंदिरा भवन से विद्यालय के वार्षिकोत्सव समारोह से अपने घर चिन्तल  आर.टी.सी बस से वापस लौट रही थी | बस में यात्री बहुत कम थे ; मैं स्त्रियों के लिए आरक्षित सीट पर बैठी थी हाथ में प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या तक’ थी | शब्द महीन थे धुंधली रोशनी के वजह से पढ़ तो नहीं पा रही थी , बस यूँ हीं किताब के पन्ने पलट रही थी | कुछ देर बाद आगे सीट पर बैठी लड़की पर मेरा ध्यान गया वह बीच-बीच में लगातार मेरी ओर देख रही थी | अमीरपेट आते आते बस लगभग खाली गिनती के चार यात्री एवं कंडक्टर और ड्राइवर रह गये थे यानि की कुल मिलकर छह | इसी क्रम में वो लड़की मेरे बगल में आकर बैठ गई, उसने मुझसे परिचय किया कुछ औपचारिक बाते हुई; उसने बताया की वह मध्यप्रदेश की रहने वाली है यहाँ फार्मा कम्पनी में कार्यरत है | साथ ही उसने बताया की वह प्रभा खेतान की आत्मकथा पढ़ चुकी है | उसने कहा की उसे हिन्दी साहित्य में गहरी रूचि है क्योंकि उसका पारिवारिक माहौल साहित्य का है | बालानगर में वह लड़की उतर गई | कुछ देर बाद मैंने देखा की उसकी बादामी रंग की डायरी सीट पर छुट गई | डायरी को मैंने उठाकर उल्टा-पलटा लेकिन कहीं कोई नाम-पता या फोन नम्बर दर्ज नहीं था हाँ अलग-अलग पन्नों में कुछ चंद लाइन की प्रविष्टियाँ जरुर दर्ज थी |
पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा की वह अपनी डायरी जानबूझकर छोड़कर चली गई थी | बातचीत के दौरान मैंने उसे बताया की मैं ‘स्त्री विमर्श’ पर शोध कर रही हूँ इससे सम्बन्धित मेरे आलेख कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं | इस घटना को छह साल बीत गये | मैं उस लड़की और डायरी को भूल भी गई | पिछले महीने पुस्तक की सफाई के दौरान वह डायरी पुन: मेरे हाथ लगी और मैंने यह तय किया की गुमनाम लड़की की इस डायरी के लिखे कुछ अंश को मैं सार्वजनिक करूं :-
·       अकेली स्त्री अगर किसी पर भरोसा करे तो उसे सहज उपलब्ध मान लिया जाता है |
·       नसीहते भी गुलाम और आज्ञाकारी बनाने का उपकरण है |
·       हमदर्दी भी एक षड्यंत्र हो सकता है , या बहेलिये का बिछाया जाल |
·       संरक्षण दिमागी तौर पर गुलाम बनाने का हथकंडा हो सकता है |
·       स्त्री निर्व्याज या नि:स्वार्थ सहायता की अपेक्षा नहीं कर सकती है |
·       बंद समाजो में स्त्री-पुरुष की सामान्य स्वस्थ मैत्री ज्यादातर एक स्वस्थ मिथक होती है;-बहुत दूर की कौड़ी |
·       जो कुछ सिखाता है वह बदले में कुछ चाहता है | जो सिखाने से इनकार करता है वह यह सोचकर कि बदले में क्या मिलेगा ?
·       जिन्होंने उससे मित्रता की उन्होंने भी उसे ‘दो कौड़ी’ का समझा, जो उसका मित्र नहीं बन सके वह उसे ‘दो कौड़ी’ का बताते रहे |
·       जिन्होंने उसे प्यार किया, उन्होंने उसे कुचलकर विजय का आनन्द लिया; - जो उसका प्यार न पा सके उन्होंने उसे कुचलकर प्रतिशोध का आनंद लिया |
·       उनमें भारी बहस चल रही थी कुछ रहे थे जब वह हंसती है तो फंसती है | दूसरों का विचार था की वह फंसती है तो हंसती है |
·       स्त्रियाँ सीधी एकदम नहीं होती | यदि वे सीधी हो तो भेड़िया उन्हें तुरंत खा जाएगा | यदि वह सीधी दिखती है तो मर्द समाज को गच्चा देने के लिए, अपने बचाव के लिए, अपने किसी जटिल रहस्य को छुपाने के लिए या फिर किसी रहस्य का पता लगाने के लिए |
·       पुरुषों के आजादी से उसने इर्ष्या की और खुद थोड़ी सी आजाद होकर बहुत अधिक आजाद के रूप में देखी गई और ढेरों स्त्री-पुरुष के इर्ष्या का आजीवन शिकार होती रही |
·       मध्यवर्ग की आजाद ख्याल की स्त्रियाँ प्राय: अकेलेपन का शिकार होती हैं, उनके ह्रदय बंद, ईर्ष्यादग्ध और अति महत्वाकांक्षी होते हैं | मेहनतकश जमातों की आजाद ख्याल की स्त्रियों में सामूहिकता बोध होता है | वे एकता की कीमत पहचानती हैं क्योंकि एकता ही उन्हें मुक्त करती है |उनके दिल खुले होते हैं क्योंकि वे इर्ष्या और प्रतिशोध में नहीं जीतीं |
·       मध्यवर्गीय स्त्रियों के जीवन और मानस में समस्याएं अधिक अरूप, अमूर्त, एकांगी और अतिरेकी बनकर आती है क्योंकि वे परिप्रेक्ष्य से कटी होती हैं | चीजें लगातार एक सी बनी रहेंगी तो एक प्रचंड प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता वाली नारीवाद वाला मानस तैयार होगा |
·       अंत में यह कि ये सारी बातें पूरा सच नहीं है, आधा सच है | अगर ये पुरी सच होती तो दुनिया जीने लायक नहीं होती |
लेकिन फिर, यह सच है की लगातार लड़ते हुए ही जिया जा सकता है, सजग रहकर ही जिया जा सकता है , और अनेकों अप्रत्यशित मोहभंगों,वायदा खिलाफियों,विश्वासघातों, विफलताओं और पराजयों के लिए यथार्थवादी ढंग से तैयार होकर ही एक आशावादी के रूप में जिया जा सकता है |

क्रमश:
अर्पणा दीप्ति 


    

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