बुधवार, 13 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी में एक रहस्य रोमांच भरी जादुई कहानी – भाग 2




अर्पणा दीप्ति 

(गुमनाम लड़की की डायरी जो मुझे आर.टी.सी बस में मिली थी उसमे सबसे लम्बा इंद्रजाल वाली यह कहानी है | कहानी क्या है ? कहानीनुमा कुछ है ! पर जो भी है बहुत ही दिलचस्प है | डायरी पढने से यह पता चलता है कि डायरी लिखने वाली सिद्धहस्त लेखिका तो नहीं है लेकिन उसने विश्व साहित्य के लेखकों गोगोल से लेकर मार्खेज और लारा इस्कीवेल आदि की लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवादी कहानियां पढ़ती रही है और मुक्तिबोध को भी उसने पढ़ा है | यह उसकी डायरी से पता चल जाता है भाषा में कच्चापन है इसके बावजूद यह कहानीनुमा चीज काफी दिलचस्प है | भाषा में कुछ सुधार कर मैं इसलिए इसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ |)

एक भूतबंगले में कैद मैंने उम्र का एक बड़ा हिस्सा गुजार दिया | फिर जब तमाम सुरंगों से गुजरकर, खिड़कियों से कूदकर, चारदीवारियों में सेंध लगाकर मैं बाहर आयी तो बरसों बाद पाया कि वह एक बड़ा भूत बंगला था, जिसमे तमाम सुरंगे, खुली खिड़कियाँ और चारदीवारी के कमजोर हिस्से मेरे लिए ही छोड़ दिए गये थे | फिर उसी तरह के जतन  करके हिकमत लगाकर मैं जब उस भूत बंगले से बाहर आई तो फिर पता चला कि वह एक और बड़े भूत बंगले के बीच का खुला आँगन था जिसमें वह भूत बंगला था जिसके भीतर सबसे छोटा वाला भूत बंगला था |

    इस तरह सात बार हुआ | हर बार एक छोटे भूत बंगले से बाहर निकलकर खुद को मैं एक बड़े भूत बंगले में पाती रही | फिर मुझे एक आदमी मिला जो भेष बदलकर बंगले की पहरेदारी में शामिल था | वह कुछ अलग था | उसकी आँखों में सहानुभूति और सरोकार के रंग थे | उसने मुझे भूत बंगले की जादू से मुक्त होने की तरकीब बताई और एक दिन मैं उसी तरकीब पर अमल करके वाकई भूत बंगले से बाहर आयी तो बाहर रेगिस्तान में एक ऊंट लिए वही आदमी मुझे इन्तजार में करता मिला | उसने मुझे ऊंट पर बिठाया और पहले तपता  रेगिस्तान, फिर एक उफनती नदी, फिर एक खतरनाक दलदली इलाका, फिर एक बीहड़ जंगल और फिर एक दुर्गम पठार पार करके हम एक इंसानी बस्ती में पहुंचे |  वहां सडकों पर चहल-पहल थी, जगह-जगह उत्सव थे, मेले थे, सभा संगोष्ठियाँ थी; खुबसूरत बाग़ और पार्क थे | मैं उस जीवन में रम गई | लोगों की जिन्दगी की खुशहाली और खुबसूरती में घुलती-मिलती चली गई | मेरे हमदर्द की आँखों का रंग सहानुभूति और सरोकार से बढ़कर दोस्ती का हो गया और फिर न जाने कब उसमे प्यार के रंगीन डोरे तैरने लगे | पर अभी मैं आजादी की अभ्यस्त नहीं हुई थी इसलिए मैं और इन्तजार करना चाहती थी | इस जीवन के हर रंग को जानना चाहती थी और उसे रचने में भी भागीदार बनना चाहती थी | मेरा हमदर्द अक्सर आता था और मुझे उस खुबसूरत बस्ती की खुबसूरत जगहों पर घुमाने ले जाता था | वह रोज अलग-अलग ढंग के पोशाक पहनकर आता था | रोज उसकी अलग-अलग काबिलियत और हुनर के बारे में इतना जानने को मिलता था कि वह कई बार एक एक रहस्य सा लगने लगता था |

    एक दिन हमलोग बस्ती से बाहर एक शांत झील के किनारे एक कुंज की छाया में बैठे थे | शाम ढल चुकी थी | मेरे हमदर्द मुझ से कुछ बात करते हुए मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया और सहलाने लगा | अचानक मैंने कुछ अप्रिय खुरदरा महसूस किया और चौंककर देखने पर पाया कि उसकी अंगुलियाँ और पंजे बाघ के पंजे में तब्दील होते जा रहे हैं, उसकी पोशाक धारीदार खाल बनती जा रही है, चेहरे पर घने बाल निकलते जा रहे हैं और गले से अजीब सी घुरघुराहट निकल रही है | मैं एकदम डर गई | हड़बड़ा कर उठी और हाथ छुड़ाकर बस्ती की ओर  जाने के लिए मुड़ी | लेकिन जहाँ बस्ती था वहां धुल, धुआं और सन्नाटे के सिवा और कुछ भी नहीं था | बदहवास मैं मुड़ी और किसी एक दिशा में भागती चली गई | वह बाघ मेरा पीछा करता रहा; दौड़ते हुए नहीं बस इत्मीनान भरी चाल चलते हुए |

    कई बरस वीरानियों में गुजारने के बाद मैं फिर इंसानी बस्ती तक पहुंच गई | पीछा करता बाघ बस्ती के सीमा पर रुका और फिर वापस लौट गया | ये अलग किस्म की बस्तियां थी | यहाँ सभी लोग तमाम कामों में व्यस्त थे | वे राह चलते लुटेरे गिरोहों के हमले से बस्ती के हिफाजत का उपाय करते थे | वे दुःख शोक और उत्सव साथ में मनाते थे |

   कभी-कभी आपस में बुरी तरह से लड़ते भी थे | इन्हीं बस्तियों में से एक में मैंने अपना पड़ाव डाला | बस्ती के किसी व्यक्ति ने मेरी विशेष मदद करने की कोशिश नहीं की | जरूरत पड़ने पर कोई मदद करने को आ जाता था | कुल मिलाकर सभी किसी न किसी रूप में मददगार होते थे | बस्ती के लोग उस रहस्यमयी बाघ के बारे में जानते थे और भूत बंगले के भीतर भूत बंगले के तिलिस्म को भी जानते थे | धीर-धीरे मैं भी उन्हीं में से एक बनती जा रही थी | लेकिन फिर बस्ती के ठहरे-ठहरे आत्मतुष्ट जीवन से मुझे उब होने लगी | यहाँ लोग सामूहिकता से अधिक निर्भरता के चलते व्यक्तिक विशिष्टता खोकर सपाट चेहरे वाले लोग बन गए थे | कुल मिलाकर वे अच्छे लोग थे पर आसन्न समस्याओं और तात्कालिक हितों से आगे कुछ सोचने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी | एक ठहरे हुए लिसलिसे-चिपचिपे रागात्मक परिवेश में जीते चले जाने से आगे वे कुछ सोचते नहीं थे | भूत बंगला और बाघ के रहस्य को पुरी तरह से समझने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी | उनके लिए यह काफी था की वे उस तिलिस्म के बाहर थे | इसलिए मैं उस बस्ती के अपने ठिकाने से चल पडी और बस्ती दर बस्ती सफर जारी रखते हुए नमकसारों, खदानों, खरादों, भटियारखानों और सरायों से गुजरती रही इस दौरान मेरा परिचय ऐसे लोगों से हुआ जो किसी बस्ती में नहीं रहते थे स्थायी तौर पर | वे खानाबदोश लोग थे जो सड़क, खदान, भट्टी, नमकसार......जहां कहीं भी काम मिलता था करते थे, वहीं ठीहा जमाकर रहते थे और काम खत्म होने पर अगले काम की तलाश में आगे की ओर चल देते थे | कई बार मैं ऐसे घुमंतू कारवाँ में शामिल रही और कई बार अकेले ही अपना सफर जारी रखा|

    एक दिन थकान से चूर मैं एक सराय में पहुंची और पहुँचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई | जब नींद टूटी तो शाम का समय था मुझे ताज्जुब हुआ | सोई तो मैं रात को थी , कमरे से बाहर आने पर मैंने पाया की यह तो वही भूत बंगले का एक कमरा है जहाँ से भागने के बाद मेरे लम्बे सफर की शुरुआत हुई थी | बदहवास मैं बगल के कमरे में रहनेवाली एक बूढी औरत के पास गई | उसे अपने बरसों की यात्रा के बारे में बताया और फिर पूछा कि मैं यहाँ कैसे पहुँची ? बूढी स्त्री ने अपनी मिचीमिची आंखों से मुझे देखा और फुसफुसा कर कहा यह बात तुम दुबारा फिर कभी मत करना | तुम परसों से सो रही हो और अब बस तुम्हारे ऊपर निगाह रखी जाने लगी है | तुम्हारी दादी इसी तरह सोती थी और उन दिनों की लम्बी यात्रा पर निकल जाती थी जो कभी होता नहीं था | भविष्य के अपने यात्रा के किस्सों को जो भी मिलता था उसे वह सुनाती रहती थी | धीरे-धीरे उसके वे किस्से पूरे भूत बंगले में फैल गए फिर काफी तूफान आया | चीजें काफी उलट-पलट गई | हालात पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया गया | तुम्हारी दादी को फिर जंजीरों से जकड़ कर तहखाने में डाल दिया गया और दरवाजे पर एक बड़ा सा ताला डाल दिया गया | कुछ बरस बीतने के बाद फिर ऐसा होने लगा कि ताला अपने-आप नीचे खुलकर गिर जाया करता था फिर वहां दूसरा नया मजबूत ताला लगा दिया जाता था | उन दिनों सभी  पहरेदार भी काफी परेशान थे | हो यह रहा था की ताला हरेक दो दिन पर अपने-आप टूटकर गिर जाता था | इसलिए कह रही हूँ कि ‘तुम अपना सपना याद रखना हर किसी के सामने बयान मत करना |’

     “तुमने मेरी दादी को देखा था ?” मैंने धीमे स्वर में पूछा ? बूढी स्त्री कुछ नहीं बोली उसने रहस्य और प्यार के साथ मुझे देखा और फिर मुस्कुराने लगी |

क्रमशः                


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