शुक्रवार, 1 मार्च 2019

अलविदा दादा नामवर





नहीं रहे हिन्दी आलोचना के ब्रांड एमबेसडर नामवर सिंह | नामवर सिंह सही मायने में नामवर थे,सूफी परम्परा में एक कहावत है -'अच्छे लोगों को मरना अवश्य है ,लेकिन मौत उनके नाम को नहीं मार सकती  | पहले कुंवर नारायण सिंह ,केदारनाथजी ,कृष्णा सोबती ,अर्चना वर्माजी और अब नामवरजी | हिन्दी साहित्य धीरे-धीरे अनाथ होता जा रहा है | मानो ऐसा लग रहा है कि लगातार हम अपने दिग्गजों को श्रद्धांजलि देने के लिए अभिशप्त होते जा रहे हैं |

नामवर सिंह हिन्दी आलोचना के देदीप्यमान नक्षत्र थे , लगातार सम्वादरत आलोचक जिन्होंने लिखने से ज्यादा बोलकर यश कमाया | वह वाचिक परम्परा के आचार्य थे | ये आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे | एकबार किसी ने द्विवेदीजी से पूछा कि आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि उन्होंने कहा 'नामवर' | सही मायने में आज हिन्दी साहित्य का तीसरा मजबूत स्तम्भ समाप्त हो गया, एक युग का अंत हो गया |

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को बनारस के पास जीयनपुरा गाँव में हुआ था | इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम ए और पीएचडी की | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनके शोध निदेशक थे | कुछ दिनों तक बनारस विश्वविद्यालय में इन्होंने अध्यापन का कार्य किया | ये वामपंथी विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित थे | उन्हीं दिनों बतौर वामपंथी उम्मीदवार चुनाव में इन्हें करारी शिकस्त मिला | बनारस विश्विद्यालय के आंतरिक राजनीति से छुब्द्ध होकर सागर विश्वविद्यालय चले गये | बाद में ये दिल्ली जेएनयु में हिन्दी विभाग के संस्थापक विभागाध्यक्ष बने और वहीं से सेवानिवृत हुए | जेएनयु ने इन्हें प्रोफेसर इमेरिटस का दर्जा दिया था |

तकरीबन तीसियों से अधिक पुस्तक लिखकर इन्होने हिन्दी आलोचना साहित्य को समृद्ध किया|

किसी ने इनसे पूछा द्विवेदीजी से मूल शिक्षा क्या ग्रहण किया आपने ? इनका जबाव कुछ ऐसा था-

"चढिये  हाथी ज्ञान को सहज दुलीचा डाल |"

नामवरजी की दृष्टी में प्रेम की परिभाषा -" प्रेम पुमर्थों महान "

प्रिय पुस्तक -'रामचरितमानस"

प्रिय भोजन -'सत्तू'

प्रिय आलोचक -'विजय नारायणदेव शाही '

प्रिय कवि- 'रघुवीर सहाय' 
   
प्रिय कहानीकार- 'निर्मलवर्मा'

प्रिय उपन्यासकार -'फणीश्वरनाथ रेनू '

प्रिय निबंधकार -'हरिशंकर परसाई'

नामवर सिंह अकेले नहीं होते थे कलम उनका साथी  था लेकिन जब वे सही मायने में अकेले होते थे तो उनका मानना था -

"जब मैकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की कैद मस्जिद हो मदरसा हो कोई खाना ख्वाह हो |"

नामवरजी पुनर्जन्म में  विश्वास नहीं करते थे | प्रो. गोपेश्वर सिंह ने उनसे पूछा ऐसा कौन सा काम जिसे ना करने का अफसोस हो  नामवर सिंह ने कहा -

"हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे निकले दम "

 जब इनसे पूछा गया बनारस से उखड़कर दिल्ली आ बसने पर आपने क्या खोया क्या पाया ?
इन्होनें कहा -"आपा खोया सरोपा पाया "

इनकी स्वयं रचित प्रिय पुस्तक थी "दूसरी परम्परा की खोज "

92 साल की आयु में इन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया ,26 जुलाई को वे 93 साल के हो जाते थे | नामवरजी ने अच्छा जीवन जिया और बड़ा जीवन जिया |
नामवरजी के यार दोस्त रकीब उन्हें अपने तरीके से श्रद्धांजली दे रहे हैं | वटवृक्ष , छतनार, शिखर पुरूष, प्रथम पुरूष ,श्लाका पुरूष शीर्ष आलोचक इत्यादि | सही मायने में हिन्दी साहित्य और आलोचना की दूसरी परम्परा के ध्वजधारक का अंत हो गया |


अर्पणा दीप्ति 

बुधवार, 23 जनवरी 2019

इन दो नैनन को मत खइयो,जिनमे पिया मिलन की आस



बाबा फरीद की ये पंक्तियाँ बचपन से सुनती आई लेकिन इनका अर्थ तब समझ में नहीं आता था | कागा यानी कि कौआ का प्रजाति कोई उससे क्यों कहता है कि “कागा सब तन खइयो,मेरा चुन-चुन खइयो मांस |/इन दो नैनन को मत खइयो,मोहे पिया मिलन की आस ||”


  लेकिन जैसे-जैसे जिन्दगी आगे बढ़ती गई और रंग दीखती गई इन पंक्तियों का अर्थ मैंने अपने स्तर पर समझने की कोशिश की | मुझे लगता है कि “कागा” यानि कि दुनिया के वे तमाम रिश्ते जो स्वार्थ और जरूरत पर टिके हैं ; जो हमेशा आप से कुछ न कुछ लेने की बात जोहते हैं-कभी भाई-बहन माँ-पिता बनकर तो कभी पति-पत्नी दोस्त या सन्तान बनकर आपको ठगते हैं | उनके मुखौटों के पीछे एक कागा ही होता है;-जो अपनी नुकीली चोंच से हमारे वजूद को, हमारे अस्तित्व को, हमारे व्यक्तित्व को हमारे स्व को निज को खाता रहता है | 

         
     हम लाख छुड़ाना चाहें खुद को वो हमें नहीं छोड़ता;-हमारे देह को हमारे तन को खाता रहता है चुन-चुनकर मांस का भक्षण करता रहता है | वो कई बार अलग-अलग रूपों में हम से जुड़ता है और धीरे-धीरे हमे समाप्त करता है |

    ये तो हुआ कागा और हम कौन है ? सिर्फ देह ? सिर्फ भोगने की वस्तु ? किसी की जरूरतों के लिए हाजिर समान की डिमांड ड्राफ्ट ?क्या है हम और पिया कौन है ? जिससे मिलने की चाह में हम ज़िंदा हैं ? कागा द्वारा सम्पूर्ण रूप से तन को खा लिए जाने का भी हमें गम नहीं ! उससे आग्रह किया जा रहा है कि “दो नैनन मत खइयो मोहे पिया मिलन की आस|” कौन है ये पिया ? यकीनन वो परमात्मा ही होगा जिसकी तलाश में ये दो नैना टकटकी लगाए है कि अब बस बहुत हुआ आ जाओ और साँसों की बंधन से देह को मुक्त करो |


  ये कागा उस विरहिणी का मालिक भी है जिसने उसे बंदिनी बनाकर रखा है और जो अपनी प्रियतम की आस में आँखों को बचाए रखने की विनती करती है | जब तक प्रियतम नहीं मिलते उसके प्राण नहीं जाएंगे | कितना दर्द है इन पंक्तियों में | देखा जाए तो इन पंक्तियों में गहरे  अर्थ भी है |मानो विरहणी कह रही हो कागा तू जी भरकर इस भौतिक देह का भोग कर ले मगर दो नैना छोड़ देना क्योंकि इसमें पिया मिलन की आस है और कागा अपना काम बखूबी करता है | अपनी जरूरत अपने अवसर और अपने सुख के लिए मांस का भक्षण किए जाता है | उसे विरहिणी के आँखों से क्या लेना-देना क्या सरोकार ? वो देह का सौदागर है हमेशा उसने अपना लाभ देखा है | किसी के आँखों में बहते दर्द नहीं देखे न ही पीर पराई देखी | इसलिए विरहणी कह उठती होगी कि –“कागा सब..........मोहे पिया मिलन की आस |
अर्पणा दीप्ति  





सोमवार, 21 जनवरी 2019

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है ?????





तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है ....../मेरा मरना, मेरा जीना इन्हीं पलकों के तले ......||
फैज अहमद साहब की पहली किताब “नक्शे फरियादी” में एक नज्म है-
“मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग !!” इसी नज्म में एक पंक्ति है –“तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है ?”
फैज साहब पंजाबी थे जिन आँखों के हुस्न से उन्होंने अपनी नज्म को सजाया था वे आँखें लन्दन की थी | उस खुबसूरत आँखों वाली का नाम था ‘एलिस कैथरीन जार्ज’ जो बाद में बेगम फैज बनकर एलिस फैज हो गई | इन आँखों को फैज अहमद साहब ने और अच्छी नज्म का विषय बनाया-

यह धुप किनारा शाम ढले,
मिलते हैं दोनों वक्त जहाँ |
जब तेरी समन्दर आँखों में ,
इस शाम का सूरज डूबेगा ....
और राही अपना राह लेगा |

आँखे हमेशा हर युग में शायरों और कवियों का प्रिय विषय रही है | लिखने वालों ने अपने नए-नए अंदाज में इन्हें अपने शब्दों से सजाया है | मशहुर गजल गायक जगजीत सिंह ने ‘इन साइट’ नाम से एक अल्बम बनाया इसमें एक गीत है –

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना
दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है |
जो जी चाहे, वह हो जाए, कब ऐसा होता है ?
अब तक जो होता आया है वही होना है |


भारत से कई समन्दर दूर इटली के शहर पालेरमू के म्यूजियम में दो आँखें ऐसी है जिसे कोई एकबार देख ले जीवन में कभी भूल नहीं पाए | ये आँखें शायरों कवियों की आँखों की तरह किसी स्त्री के चेहरे की नहीं अपितु प्राचीन ग्रीक देवता “जेनस” की मूर्ति की है | इस मूर्ति की दोनों आँखों में से एक आँख मुस्कराती नजर आती है ; दूसरी बिना आंसू के रोते दिखाई देती है | एक ही चेहरे में एक साथ रोती और मुस्कराती आँखें ! ये आँखें जीवन का सत्य बयान करती हैं | यह भी तो सत्य है कि जीवन का सत्य जानने के लिए हर कोई राजगद्दी त्याग कर गौतम बुद्ध तो नहीं बन सकता |      
क्रमशः 

अर्पणा दीप्ति 

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

“तुम मिली......जीने को और क्या चाहिए”





था बिछोह दो दशकों का भारी,
विलग हो हुई अधूरी;
बस साँसे थी तन में ,
शक्तिहीन मन-प्राण |

थे कुछ शिकवे और शिकायत ,
उस अनंत सत्ता से ;
बनी फरियादी किया फरियाद ,
याद किया तुम्हें जब-जब ,
नयन-नीर-सजल
अधीर मन प्राण |

हुई आज पुनः सम्बल
पाकर तुमको-
एक क्षण सहसा चौंकी !
कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं !!

बातें कर तुमसे बहुत रोई ,
होती जो तुम साथ मेरे ;
मिलकर हम देते जग को नई दिशा,
एक नया क्षितिज एक नया उजियारा ||

हाँ ! वो तुम्हीं तो थी
करती थीं मुझमे नव उर्जा का संचार ;
विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखे |


थे पथ दिशाहीन;
था संघर्षरत तन,
पथ पर थे अंगारे ,
झुलस रहा था मन-प्राण |


काश होती जो तुम ,
पथ के शूल बनते फूल ,
अंगारे देती शीतलता |

उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर ;
हुआ नाभिनाल आबद्ध ,
हुई ममत्व से सम्बलित |

क्या भुलूँ क्या याद करूं ?
कहाँ-कहाँ से गुजर गई ?
अस्तित्व के जद्दोजहद में,
वय के चार दशक बीत चुके हैं,
पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी |

शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे
बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;
अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा ,
गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे ;
बस है यही कहानी ||

तुम नहीं बदली बिल्कुल;
आज भी हो वैसी हीं,
विधि के ये एहसान नहीं कम;
पाया तुमको फिर से
आओ बैठे कुछ क्षण;
मैं बोलूं तुम सुनना ,
दो दशकों का दूँ ;
तुमको लेखा-जोखा,
तुम कुछ अपनी कह लेना;
मैं सुनाऊं सबसे ज्यादा ||


तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-
“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना|”
मेरी दुआ कुबूल हुई |
तुम्हारी मानस की चौपाई-
“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू / सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ||”
और तुम मुझे मिली |
“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है , सपने देखना कभी नहीं छोड़ना |”
दिनांक -4-6-1998 (महरानी रामेश्वरी महिला महाविद्यालय छात्रावास दरभंगा)
अर्पणा दीप्ति





गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

प्यार अगर इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम जैसा होता



अमृता प्रीतम पर कुछ लिखना जैसे आग को शब्द देना, हवा को छुकर आना चांदनी को अपनी हथेलियों के बीच बांध लेना | प्रेम में डूबी यह स्त्री आजाद थी और खुद्दार भी उतनी ही | हालांकि प्रेम और आजादी दो विरोधाभासी शब्द हैं |प्यार जहाँ किसी को सिरे से बांधता है तो  वहीं आजादी हर बंधन को तोड़कर खुली हवा में  जीने और सांस लेने का नाम है | लेकिन अमृता ने प्यार के साथ आजादी को जोड़कर प्यार के रंग को थोड़ा और चटख और व्यापक बना दिया | यह खुद को आजाद करना ही था की सिर से पाँव तक साहिर के प्रेम में डूबे होने, तथा इस प्रेम के कारण अपनी बंधी-बंधाई गृहस्थी छोड़ने के बावजूद जब अख़बार में उन्हें यह खबर पढ़ने को मिलती है कि साहिर को उनकी नई मुहब्बत मिल गई , फोन की तरफ बढ़े उनके हाथ पीछे खिंच जाते हैं | अमृता न रोती है न आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत करती है | यहाँ प्रेम के साथ खुद्दारी की बात जो ठहरी | अपनी जिन्दगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजर जाती हैं| अमृता को तब नर्वस ब्रेकडाउन भी हुआ , जिससे वे बमुश्किल उबरी थीं| उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखती हैं जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविता उन्होंने इसी दौर में लिखीं |

“रसीदी टिकट” की भूमिका में अमृता लिखती हैं –‘मेरी सारी रचनाएँ,क्या कविता क्या कहानी क्या उपन्यास सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं | मेरी दुनियां के हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुई | एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और उन्होंने सारी उम्र साहित्यक समाज के माथे के बल भुगते हैं|’

अपनी रचनाओं का यह परिचय न सिर्फ अमृता के विद्रोही तेवर को बताता है, बल्कि साहित्यक समाज के लिए उनके विक्षोभ और दुःख को भी दर्शाता है| हालांकि यह सच अमृता के हिस्से का सच होते हुए भी कुछ मायने में अंशत: सच है |यह सच है कि अपनी बगावती तेवर ने उनके हिस्से में हमेशा मुश्किलों को डाला |

यूँ ही नहीं एक दौर के पढी-लिखी लडकियों के सिरहाने अमृता की “रसीदी टिकट” हुआ करती थी | बल्कि उनके जीने-रहने के तौर तरीके भी कापी किए जाने लगे | अमृता आजाद ख्याल इन लड़कियों की रोल माडल रहीं | सबसे ख़ास बात यह कि इनमे से ज्यादातर लड़कियों के लिए उनके क्षेत्र और भाषा की लेखिका नहीं थीं | भाषा की दीवार से परे अपने शब्दों के पंख को उन्होंने खुला आकाश दे दिया था | अमृता का यही आकर्षण उन्हें ख़ास बनाता है | प्रेम और आजादी का चटख रंग उन्हें इमरोज में मिला | इस बात का प्रमाण अमृता के एक पत्र में मिलता है जो उन्होंने भारत के  स्वतंत्रता दिवस के दिन किसी अन्य देश में लिखा था | वे लिखती हैं –“इमुवा,अगर कोई इंसान किसी की स्वतंत्रता दिवस हो सकता है तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो......”| यह प्यार के सदियों से चले आ रहे बंधे-बंधाए दायरे को विस्तृत करना था | इसमें अमृता से रत्ती भर भी कम हाथ इमरोज का न था |

प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है | पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता,शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं| खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है | किसी ऐसी स्त्री से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना जो आपकी नहीं है | इमरोज यह जानते थे और खूब जानते थे | उस आधे-अधूरे को ही दिल से कबूलना और पूरा मान लेना ठीक वैसे ही जिसे दुनियादारी की भाषा में प्रेम अँधा होना कहा जाता है |

अमृता अपने और इमरोज के बीच के उम्र के सात वर्ष के अंतराल को समझती थीं | अपनी एक कविता में वे कहती हैं- “अजनबी तुम मुझे जिन्दगी की शाम में क्यों मिले ?/ मिलना था तो दोपहर में मिलते |” जब इमरोज ने अमृता के साथ रहने का निर्णय लिया अमृता ने  इमरोज से कहा- ‘एक बार तुम पुरी दुनिया घूम आओ, फिर भी अगर तुम मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं .....मैं तुम्हें यहीं इन्तजार करती मिलूंगी|’ इसके जबाव में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा, ‘हो गया अब तो .....’ इमरोज के लिए अमृता के आसपास ही पूरी दुनिया थी | अमृता बचपन से बेचेहरा देखे जाने वाले जिस पुरुष की खोज में पुरी उम्र भटकती रही, वह शक्ल इमरोज के सिवा किसी और का हो ही नहीं सकता था | इस दुनिया से जाते-जाते अमृता इस सच को समझ चुकी थी, इसलिए उनका अंतिम नज्म “मैं तुम्हें फिर मिलूंगी” इमरोज के नाम थी केवल इमरोज के लिए |

साहिर वह शख्श नहीं थे | उतनी हिम्मत नहीं थी उनके दिल में या फिर दुसरे शब्दों में कहें तो प्यार | प्यार हमें हमेशा हमें हिम्मत की उँगलियाँ पकड़कर चलना सिखाता है | अगर लोग यह कहते हैं कि अमृता का प्यार एक तरफा था तो यह गफलत वाली बात भी नहीं | साहिर के लिए यह प्यार एक मुकाम जैसा था, तो अमृताके लिए उनकी पूरी जिन्दगी की रसद और उसकी मंजिल के जैसा | यह प्यार-प्यार के बीच का फर्क था | दो दृष्टियों और जीवनशैलियों या फिर कह लें तो दो व्यक्तित्व के बीच का फर्क भी | कुछ लोग इस प्रेम कहानी का खलनायक साहिर की माँ को मानते हैं, कुछ लोग अमृता के पिता और पति को | कुछ लोगों के लिए यह दीवार मजहब की थी | अमृता की माने तो खलनायक का वह काम उन दोनों की चुप्पी और उनके लिखने के भाषाओं के बीच उस अंतर ने किया | हालांकि यह तर्क सम्मत नहीं जान पड़ता | यह सब जानते हैं कि अमृता पंजाबी में लिखा करती थीं और साहिर उर्दू में हालांकि साहिर की मातृभाषा पंजाबी थी |

कुछ भी कह लें लेकिन अमृता की आत्मकथा को पढ़ने से यह साफ पता चलता है कि कमजोर कड़ी वे नहीं थीं | अपनी जिन्दगी और अपने प्यार से जुड़े अनुभवों को गीतों में ढालने में माहिर साहिर ने तो बड़ी सादगी से यह लिख दिया कि-“भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है;-‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों |’ पर यह अजनबी बन जाना अमृता के लिए कभी आसान नहीं रहा |

साहिर के लिए प्रेम बहुत आगे चलकर सामाजिक इन्कलाब की राह बनता है;वहीं अमृता के लिए उनकी मोहब्बत ही उनका इन्कलाब रही | छोटी-सी उम्र में तय की गई मंगनी का ब्याह में बदलना | फिर दो बच्चे होने के बाद उस ब्याह से, उस अकहे प्रेम के लिए निकल पड़ना कोई आसान तो नहीं रहा होगा | पर कोई आसान राह अमृता ने चुनी ही नहीं | वह चाहे बसी-बसायी गृहस्थी से निकल आना हो, या फिर अपनी पूरी जिन्दगी ब्याह के बगैर इमरोज के साथ बिता देना |

लिव-इन की जिस परिपाटी को आज हम फलता-फूलता देख रहें हैं, अमृता ने उसकी नींव 1966 में ही रख दी थी; पर इससे उनके रिश्ते पर कभी न कोई फर्क आना था  न आया | और न ही उनकी जिन्दगी पर इसका कभी कोई असर रहा | साहिर और इमरोज से अपने रिश्ते का बयान करते हुए अमृता कहतीं हैं-“साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत |” इमरोज से बेपनाह प्यार करने के बावजूद भी वे अगर साहिर से अपने प्यार को नहीं भूल सकीं तो बस इसलिए कि स्त्रियाँ अपने हिस्से के सुख-दुःख को कभी विदा नहीं करती | एक कारण यह भी हो सकता है कि अपने लाख बगाबती तेवर के बावजूद वे अपनी पहली शादी से मिले पति के नाम प्रीतम को जिन्दगी भर साथ लेकर चलती रहीं |

अगर प्यार कोई शब्द है तो अमृता ने उसे अपनी कलम की स्याही में बसा लिया था | अगर वह कोई स्वर है तो अमृता के जीवन का स्थायी सुर रहा | जिस तरह अमृता ने इमरोज के लिए यह कहा कि अगर स्वाधीनता दिवस किसी इंसान की शक्ल ले सकता है, तो वह तुम हो | ठीक उसी तहर प्रेम अगर किसी इंसान की शक्ल में आए तो उसकी शक्ल अमृता जैसी होगी |
जिन्दगी की कहानी बस इतनी सी है ......एक रसीदी टिकट
(Revenue stamp) के पीछे भी लिखो तो काफी है ......!  
    
                                                 अर्पणा दीप्ति 
              


मंगलवार, 19 जून 2018

गुमनाम लड़की के डायरी के कुछ और इन्द्रराज –भाग-4



हमारे समय में प्यार एक जादुई यथार्थवाद है |
कितनी रातों की हवाओं में उसके आंसुओं के नमी भरती रही| खिड़कियों से रिसकर बाहर आती उसकी सिसकियों ने कितने हरे पत्तों का ह्रदय विदीर्ण किए | तब कहीं जाकर वह एक बेरहम दुनियादार, गावदी कर्तव्यनिष्ठ स्त्री बन सकी |



एक स्वपनहीन समय में भी कुछ लोग स्वप्न देखते पाए गए | उन्हें दूर किसी दंडद्वीप पर निर्वासित कर दिया गया | वहां से रोज वे लोग अपने सपने को डोंगियों में रखकर अपने देश की दिशा में तैराते रहते | कुछ सपने रास्ते में तूफान के शिकार होते रहे | पर जो गन्तव्य तक पहुँचते रहे, वे खतरनाक ढंग से पूरे देश में फैलते रहे | जोखिम से बचने वाले लोगों ने सपने देखना तो दूर,उनके बारे में सोचना तक छोड़ दिया | वे तमाम सुख-संतोष-आनन्द देनेवाली चीजें, प्रतिष्ठा, ख्याति आदि के बीच जीते रहे | उनके पास खोने के लिए बहुत सारी चीजें थीं पर पाने को कुछ भी नहीं था क्योंकि वे अपने सपने काफी पहले खो चुके थे, और धीरे-धीरे मनुष्यता भी |
प्यार-
मैं सागर-तट पर लहरों के एकदम निकट, ताड़ वृक्ष के खोखल से एक डोंगी बनाती हूँ, उसके मुहं पर एक कड़ी ठोकती हूँ, उसमें रस्सी बांधती हूँ और फिर डोंगी को खींचकर लहरों से दूर ले जाती हूँ | डोंगी रेत पर गहरा निशान छोड़ जाती है | फिर मैं पूरनमासी तक इन्तजार करती हूँ | तब समुद्र चिंघाड़ता हुआ आता है | और रेत पर डोंगी के बनाए हुए रास्ते से  होकर उसके पास आ  जता है | फिर आश्चर्यजनक तरीके से अपने सीमान्तों को आगे बढ़ाकर वहीं रह जाता है | अगली अमावस पर फिर मैं डोंगी को रेत पर खींचकर पीछे ले जाती हूँ | फिर पूरनमासी की रात समुद्र डोंगी की बनाई राह से उसतक वापस आ पहुंचता है | इसतरह यह सिलसिला चलता रहता है | इस तरह समुद्र एक दिन पास के जंगल तक पहुँच जाएगा, पेड़ों और लताओं के जड़ तक | उस दिन मैं अपनी डोंगी लेकर समुद्र में निकल पडूँगी और अपनी मृत्यु की और बढती चली जाउंगी |



गुमनाम लड़की के डायरी में दर्ज कुछ और नोट्स और इम्प्रेसंश


-अल्बम जिन्दगी का सही पता नहीं बताते |
-डायरी इतिहास नहीं होती| उसमें सबकुछ वस्तुगत नहीं होता |
-जो सपने अपनी मौत मरते है, उनकी लाशें नहीं मिलती, अपनी मौत मरनेवाले परिंदों की तरह |
-खूबसुरती में यकीन करने के लिए चीजों को खुबसूरत बनाने का हुनर आना चाहिए |
-ताबूतसाज के दूकान में एक पर एक कई ताबूत रखे थे | वे किसी बहुमंजिली इमारत जैसे लग रहा थे  |
-रोमांसवाद था मार्क्सवाद का पूर्वज | एक बार मैं पूर्वजों को खोजने अतीत में चली गई | जहाँ सुंदर शिलालेखों वाले कब्रों से भरा एक कब्रिस्तान था | बड़ी मुश्किल से वहां से निकलकर वापस आना हुआ |
-मैं तुच्छता से भरी अंधेरी दुनिया से आई हूँ | इसलिय तुच्छता से सिर्फ नफरत ही नहीं करती, उसके बारे में सोचती भी हूँ |
-दूसरों के बनाए पुल से नदी पार करने के बजाए मैं आदिम औजारों से अपनी डोंगी खुद बनाने की कोशिश करती रही और तरह-तरह से लांछित और कलंकित होती रही ,धिक्कारी और फटकारी जाती रही, उपहास का पात्र बनती रही | पुरुषों ने शराफत की हिंसा का सहारा लिया| पराजित स्त्रियों ने भीषण इर्ष्या की |



-कई बुद्धिजीवी मिले , उन्होंने कई दार्शनिक बातें की, कविता के बारे में कई अच्छी बातें की और कई बार शालीन हंसी हंसे | उनकी हंसी कांच के गिलास में भरे पानी में पड़े नकली बत्तीसी जैसी थी | मेरा ख्याल है, ये बुद्धजीवी रात को अपने गुप्त अड्डे पर लौटते हैं और जीवितों का चोला उतारकर प्रेतलोक में चले जाते हैं |
-पुरुष जब पौरुष की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करता है, वह स्त्री को बेवफाई के लिए उकसाता है |
-बुर्जुआ समाज में विशिष्ट व्यक्ति प्रतिशोधी, आत्मग्रस्त, और हुकुमती जहनियत के होते हैं | पराजय या पीछे छुटना उन्हें असहनीय होता है | शीर्ष तक पहुचने के लिए वे कुछ भी, कोई अमानवीय से अमानवीय कृत तक करने को तैयार रहते हैं |
-उस अनजान शहर में न जाने कितने वर्षों तक भटकती रही | जब वापस लौटने का घड़ी आया तो लाख खोजने पर भी वह अमानती समानघर नहीं मिला जहाँ अपनी सारी चीजें रखकर मैं उस शहर की सडकों पर निकल पड़ी थी | मैं उस शहर से वापस आ गई थी लेकिन मेरी भुत सारी चीजें वहीं छुट गई थी | चींजे शायद इन्तजार नहीं करती, लेकिन उनसे जुड़ी आपकी ढेरों यादें हो तो तो जिन्दगी भर उनकी यादें आती ही रहती हैं |
क्रमश:
        

शनिवार, 16 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी में विश्व साहित्य से प्रेरित एक और इंदराज भाग-3



मेरे पास एक करामाती कोट है जिसे पहनकर मैं लोगों के नजर से ओझल हो जाती हूँ  और महान बनने का मुगालता पालनेवाले आत्माओं की तस्वीरें नागिन की तरह अपनी आँखों के कैमरे में कैद करती रहती हूँ | मेरे पास जादुई जूतियों की एक जोड़ी है जिसे पहनकर मैं मनहुस पाखंडियों और कूपमंडूकों के घेरे से पवन वेग से उड़कर भाग निकलती हूँ | मेरे पास सपनों और कविताओं की एक जादुई छाता है जो मुझे उदासी और एकाकीपन की ठंढी बारिश से बचाता है |
  मेरे पास अपने दुखों और हठों के कवच-कुंडल है जो मेरी आत्मा को क्षुद्रता भरे जीवन और कुरूप मृत्यु से बचाता है |
    मैं पंखोंवाले जिस गर्वीले घोड़े की सवारी करती हूँ वह मुझे विजय तक तो शायद न ले जाए, लेकिन वीरोचित पराजय तक शायद अवश्य ले जाएगा, या फिर हो सकता है की फिर उदात्त काव्यात्मक मृत्यु तक |
    “बूढ़े आदमी ने शिकायतना अंदाज में कहा हमारे जमाने में ..........|”
युवा आदमी ने मेज पर मुक्का ठोककर बूढ़े आदमी को अवहेलनापूर्ण निगाहों से देखते हुए आत्मविश्वास के साथ कहा- “हमारे जमाने में .......|”
बूढी स्त्री ने दोनों को उचटती निगाहों से देखा, फिर बेटी को शंकालू निगाहों से देखा और कुछ इर्ष्या और कुछ अफसोस और कुछ वर्जनाओं के स्वर में बोली “हमारे जमाने में ........|”
युवा स्त्री कुछ सोचती हुई कुछ ठिठकती हुई कुछ हिम्मत बांधती हुई जैसे कुछ पूछती हुई सी दूर क्षितिज की और देखती हुई बोली “हमारे जमाने में .........|”
क्रमश: