"बड़ा खतरनाक होता है, जंगलों , पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन .....हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के दर्शन के लिए ।''
’कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऎसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है । इस उपन्यास का नायक ईसुरी है,लेकिन कहानी रजऊ की है - प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ के रास्ते बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हैं। प्यार जहाँ उनको बल देता है,तो तोड़ता भी है। शास्त्रीय भाषा में कहा जाए तो ईसुरी शुद्ध लंपट कवि है, उसकी अधिकांश फागें शृंगार काव्य की मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए शारीरिक आमंत्रणों का उत्सवीकरण है।
ऋतु की शोध यात्रा माधव के साथ ओरछा गाँव से शुरू होती है । लेकिन यह क्या, कि सत्तरह गाँवों की खाक छानकर रजऊ की खोज में पहुँची ऋतु को लोग ईसुरी का पता तो देते हैं मगर रजऊ के बारे में जानकारी देना इसलिए बुरा मानते हैं चूँकि उनकी नजर में रजऊ बदचलन है । लोग विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहते हैं , आजकल पढ़ाई में लुचियायी फागें पढ़ाई जाती हैं! यह गाँव ऋतु की बुआ का गाँव था । ऋतु की बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी । ऋतु को अपने ऊपर झुँझलाहट होती है कि मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया?
"क्योंकि रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार नहीं करता, उसके रूप में मेरी देह का अक्स लोगों के सामने फैल जाता है ।"(पृ.सं-14)
ऋतु के शोध का अगले पड़ाव का संबंध सरस्वती देवी की नाटक मडंली में फाग गाने वाले ईसुरी तथा धीर पंडा से है। रामलीला में तड़का लगाने के लिए ईसुरी के फागों की छौंक ! यह क्या, तभी एक बूढ़ी औरत मटमैली सफेद धोती पहने माथे तक घूँघट ओढ़े भीड़ को चीरती हुई मंच पर आ जाती है । उसकी कौड़ी सी दो आँखो में विक्षोभ का तूफ़ान उठ रहा था-
" मानो फूलनदेवी की बूढ़ी अवतार हो । काकी उद्धत स्वर में चिल्लाई -’ओ नासपरे ईसुरी लुच्चा तोय महामाई ले जावे ।’ काकी भूखी शेरनी की तरह ईसुरी की तरफ बढ़ने लगी । मुँह से शब्द नहीं आग के गोले निकल रहे थे । टूटे दाँतों के फाँक से हवा नहीं तपती आँधी टूट रही थी । काकी ने चिल्लाकर कहा, हमारी बहू की जिन्दगानी बर्बाद करके तुम इधर फगनौटा गा रहे हो। अब तो तुम्हारे जीभ पर जरत लुघरा धरे बिना नहीं जाएंगे।"(पृ.सं.-21)
दर्शक उठकर खड़े हो जाते हैं | रघु नगड़िया वाला आकर कहता है -
" भाइयों अब तक आपने फागें सुनी और अब फागें नाटक में प्रवेश कर गईं -’लीला देखे रजऊ लीला’ काकी रघु से कहती है-’अपनी मतारी की लीला दिखा’ काकी कहती है -’आज तो हम ईसुरी राच्छस के छाती का रक्त पीके रहेंगे । धीर का करेजा चबा जाएँगे।" (पृ.सं.-22)
काकी के कोप का आधार ? बात उन दिनों की है जब काकी का बेटा प्रताप छतरपुर रहता था और उसकी नवयुवा बहू रज्जो की उम्र बीस वर्ष से कम थी । सुंदर इतनी कि जहाँ खड़ी हो जाए, वही जगह खिल उठे । वह अपूर्व सुंदरी थी या नहीं , मगर ईसुरी के अनुराग में उसकी न जाने कितनी छवियाँ छिपी थीं ।
काकी के घर उन दिनों पंडितों के हिसाब से शनि ग्रह की साढ़े साती लगी थी; नहीं तो मेडकी के ईसुरी और धीर पंडा माधोपुरा की ओर न आते और रज्जो फगवारे को अनमोल निधि के रूप में न मिलती । घूंघटवाली रज्जो से अब तक ईसुरी का जितना भी परिचय हुआ वह लुकते छिपते चंद्र्मा से या राह चलते-निकलते आँखों की बिजलियों से । ऎसे ही बेध्यानी में ईसुरी एक दिन ठोकर खा गए और गिरे भी तो कहाँ; रजऊ की गली में ! ईसुरी ने अपनी ओर से रज्जो को नाम दिया - रजऊ ।
रज्जो को घूंघट से देखने की दिलकश अदा अब ईसुरी को सजा लगने लगी । वे सोचते - यह सब मुसलमानों के आने से हुआ । वे अपनी औरत को बुर्का पहनाने लगे । हिंदुओं ने सोचा, हमारी औरत उघड़ी काहे रहे ? मुसलमानों के परदे को अपना लिया पर अंग्रेजों का खुलापन उन्हें काटने दौड़ा ।
इधर प्रताप छतरपुर में मिडिल की पढ़ाई पूरी न कर पाने के कारण अपने गाँव वापस नहीं आ पाता है | इस खबर से उसकी बूढ़ी माँ एवं पत्नी उदास हो जाती हैं । सास बहू को समझाती - ऎसे उदास होने से काम नहीं चलेगा । स्थिति को पलटने के लिए सास ने दूसरा नुस्खा अपनाया । फाग के पकवानों की तैयारी पूरी है,फगवारे को खिलाकर कुछ पुन्न-धरम कर लेते हैं। रज्जो के चेहरे पर हुलास छा जाता है। सास मन-ही-मन जल-भुनकर गाली भरा श्राप ईसुरी को देना शुरू करती है।
सास रज्जो को समझाती है। पूरा मोहल्ला होली में आग नहीं लगा रहा बल्कि हमारे घर में आग लग रही है। प्रताप का चचेरा भाई रामदास भी रज्जो और फगवारे के प्रसंग को लेकर आगबबूला होता है। सास बदनामी से बचने के लिए रज्जो को मायके जाने की सलाह देती है। लेकिन रज्जो मायके जाने से साफ मना कर देती है। अपनापन उडेलते हुए सास से कहती है -
"हमारे सिवा तुम्हारा यहाँ है कौन ? तुम्हारी देखभाल कौन करेगा । गाँव के लुच्चे लोगों की बात छोड़ दो ।" (पृ.सं.-45)
सास रज्जो का विश्वास कर लेती है और कहती है-
"मोरी पुतरिया,भगवान राम भी कान के कच्चे थे, मेरा बेटा तो मनुष्य है।" (पृ.सं.-46)
सास रज्जो को अपनी आपबीती सुनाती है कि किस प्रकार फगवारा उसके लिए फाग गा रहा था और उसी दिन प्रताप के दददा उसे लिवाने आए थे । उन्होंने सुन लिया था ।
''मर्द की चाल और मर्द की नजर का मरम मर्द से ज्यादा कौन समझे ! अपना झोला उठाया और चुपचाप वापस चले गए । फिर खबर आई -अपनी बदचलन बेटी को अपने पास रखो, ऎसी सत्तरह जोरू मुझे मिल जाएगी ! फिर क्या था माँ ने डंडों से मेरी पिटाई कर डाली तथा जबरदस्ती नाऊ (हजाम) के संग सासरे भेज दिया । कहा कि नदी या ताल में ढकेल देना, अकेले हमारे देहरी न चढ़ाना । नहीं तो इसके सासरे वालों से कहना- खुद ही कुँआ बाबरी में धक्का दे दें । हम तो कन्यादान कर चुकें हैं । ससुराल वालों ने तो अपना लिया लेकिन पिरताप के दद्दा का कोप बढ़ता तो हथेली पर खटिया का पाया धर देते , अपने पाया के उपर बैठ जाते । डर और दर्द के मारे मैं सफेद तो हो जाती मगर रोती नहीं । यह सोचकर जिन्दा रही अपना ही आदमी है जिसका बोझ हम हथेली पर सह रहें हैं। जनी बच्चे का बोझ तो गरभ में सहती है जिंदगानी तो बोझ वजन के हवाले रहनी है ; सो आदत डाल लिया ।"(पृ.सं.48)
रज्जो सास के हाथों पर घाव के भयानक निशान देखकर काँप उठती है।
सास ईसुरी तथा पंडा को खाना खिलाते हुए वचन लेना चाहती है कि रज्जो के नाम पर अब वे फाग नहीं गाएँगे । एकाएक फगवारे खाना छोड़कर उठ जाते हैं। ईसुरी इंकार करते हुए कहता है -
"काकी हम जिस रजऊ का नाम फाग के संग लगाते हैं वह न तो प्रताप की दुल्हन है न तुम्हारी बहू?"(पृ.सं.53)
ऋतु के श्रीवास्तव अंकल ऋतु को सरस्वती देवी का पता देते हुए चिरगाँव जाने को कहते हैं और बताते हैं कि हिम्मती औरत है, समाज सेवा का काम करती है, लोकनाट्य में रुचि है और हर साल मंडली जोड़ती है।
सरस्वती देवी ने ऋतु तथा माधव को अपने जीवन का किस्सा बताया ।
"विधवा हुई , मेरे संसार में अंधेरा छा गया । मगर जिंदगी ने बता दिया कि पति न रहने के बाद औरतों को अपने बारे में सोचना पड़ता है। अपने लिए फैसले लेने पड़ते हैं और फैसला ले लिया । फाग मंडली एक कुलीन विधवा बनाए , परिवार वाले यह बात कैसे सहन करते। कभी जलते पेट्रोमेक्स तोड़े गए तो कभी फगवारे को भाँग पिला दी गई । सरस्वती देवी कहती हैं -पर मैं हार नहीं मानने वाली थी , दूसरे फगवारे को खोजती फिरती क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जा कर लिया था । फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूँद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आँखों से आँसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जाएँ । रजऊ जैसा नगीना फागों में न टँका होता तो ईसुरी को कौन पूछता ।’ " (पृ.सं.-57)
इधर मामा के छतरपुर वाले घर को आधुनिक नरक कहने वाला माधव उधर ही जा रहा था । लेकिन वहाँ के भ्रष्ट माहौल को देखकर वह वापस ऋतु के पास लौट आता है । जहाँ ऋतु के मन में माधव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटता है वहीं मामा के घर जाने पर क्रोध भी आता है ।
सरस्वती देवी ऋतु को मीरा की कहानी सुनाती है - किस प्रकार आँगनवाड़ी के क्षेत्र में मीरा महिला सशक्तीकरण की मशाल अपने हाथ में लेती है । गाँव की सीधी-सादी तथा ससुरालवालों द्वारा पागल समझी जाने वाली मीरा को पढ़ने की बीमारी लग चुकी थी । गाँव की सभ्यता को दरकिनार करते हुए मीरा मोटरसाइकिल चलाने का निर्णय लेती है।
मीरा सिंह की मोटरसाइकिल पर ऋतु बसारी पहुँचती है, 90 वर्ष की बऊ से मिलने । गौना करके आई रज्जो के अपूर्व रूप का वर्णन बऊ करती है। कहती है -
"प्रताप की बहू रूप की नगीना, नगीने के नशे में मदहोश प्रताप।"(पृ.सं.-69)
इधर प्रताप छुट्टी बिताकर छतरपुर वापस चला जाता है, उधर ईसुरी के चातक नयन रज्जो की बाट न जाने कब से देख रहे थे । एक ओर पराई औरत की आशिकी और फागों में फिर-फिर रजऊ का नाम लगाने वाले ईसुरी के यश की गाथा राजा रजवाड़ों तक पहुँची । दूसरी ओर सुंदर बहू की बदकारी गाँववालों से होते हुए प्रताप के कानों तक पहुँची । प्रताप पहले फगवारे को समझाता है, पैर पड़ता है, लेकिन सब बेकार। अंत में उसने फगवारे की पिटाई कर दी । प्रताप एक कठोर निर्णय लेता है वह रज्जो का मुँह कभी नहीं देखेगा । वह वापस छतरपुर जाकर अंग्रेजों की पलटन में भर्ती हो जाता है । मर्द चले जाते हैं , घर की रौनक बाँध ले जाते हैं । प्रताप का विमुख होना घर की तबाही बन गया ।
यह बात तो दीगर थी कि रज्जो ने ईसुरी को दिल से चाहा था , लेकिन यह क्या कि फगवारे तमोलिन की बहू के नाम पर फाग गा रहे हैं । जोगन बनी रज्जो आहत होती है । सास रज्जो की पहरेदारी करती है, रज्जो फगवारे से न मिल पाए । तभी पिरभू आकर खबर देता है -"ईसुरी जा रहे हैं आपसे आखिरी बार मिलना चाहते हैं ।" सास की परवाह किए बगैर रज्जो रात के आखिरी पहर हाथ में दिवला जलाए प्रेमानंद सूरे की कोठरी की ओर चल देती है । यह कैसा अदभुत प्रेम ! नहीं देखा कि उजाला हो आया, दीये की रोशनी से ज्यादा उजला उजाला । गाँव के लोगों ने कहा , यह तो प्रताप की दुल्हन है, बिचारी अपने आदमी की बाट हेर रही है , बिछोह में तन-मन की खबर भूल गई है। इतना भी होश नहीं रहा कि दिन उग आया है। नाइन की बहू फूँक मारकर दिवला बुझा देती है । रज्जो उस छोटे बच्चे की भाँति नाइन बहू की अंगुली थामे लौट आती है जिसे यह नहीं पता कि अंगुली थामने वाला उसे कहाँ ले जा रहा है ? रज्जो की सास कहती है-
"मोरी पुतरिया कितै भरमी हो ? पिरताप की बाट देख-देखकर तुम्हारी आँखे पथरा गई !" (पृ.सं.-91)
"रज्जो उस बुझे हुए दीए की तरह खुद भी नीचे बैठ गयी मानो प्रकाश विहीन दीये की सारी अगन रज्जो ने सोख ली , जलन कलेजे में उमड़ रही थी ।"(पृ.सं.-91)
सास और रज्जो दोनों जोर-जोर से रो पड़ीं । शोकगीत ने आँगन को ढँक लिया । किसके वियोग में गीत बज रहा था ? प्रताप के या ईसुरी के ? दोनों जानती थीं, दोनों के दुःख का कारण दो पुरुष हैं ।
प्रताप का चचेरा भाई रामदास रज्जो का जीना दूभर कर देता है। तीन बेटियों का बाप रामदास कुल की मर्यादा बचाने तथा कुलदीपक पैदा करने के लिए एवं प्रताप के हिस्से की जमीन हथियाने की चाह में रज्जो से शादी करना चाहता है। उसके अत्याचार से तंग आकर रज्जो घर छोड़ गंगिया बेड़िन के साथ भागकर देशपत के साथ जा मिलती है , जो देश की आजादी के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार है। यहीं रज्जो को खबर मिलती है कि प्रताप गोरे सिपाहियों से बगावत कर अपने देश के खातिर शहीद हो चुका है। रज्जो दो बूँद आँसू अपने वीर पति की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पण करती है। शरीर का साथ वर्षों से नहीं रहा वहीं मन इस कदर बँधा था । तभी तो कहती है -
"गंगिया जिज्जी,प्रेम के लिए देह ज़रूरी नहीं है पर देह के लिए प्रेम ज़रूरी है । उनके तन की खाक मिल जाती, हम देह में लगा के साँची जोगिन हो जाते ।"(पृ.सं.-278)
देशपत की फौज में जासूसी का काम करने वाली रज्जो पर कुंझलशाह की बुरी नजर पड़ती है । देशपत की फौज का बाँका सिपाही राजकुमार आदित्य रज्जो को कुंझलशाह के कहर से मुक्ति दिलाता है। रज्जो आदित्य से घुड़सवारी तथा तलवारबाजी सीखती है।
1857 में अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इंकार करते हुए रानी के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया । रानी को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेती हुई रज्जो रानी का बाना धारण करती है और अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए रानी से पहले शहीद हो जाती है ।
इधर अपने प्रायश्चित के ताप में तप रहे ईसुरी को आबादी बेगम के द्वारा वीरांगना रज्जो के शहीद होने की खबर मिलती है । अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहे ईसुरी आँखें मूँदे आखिरी निरगुण फाग गाते हुए सदा के लिए खामोश हो जाते हैं ।
"कलिकाल के वसंत में न गोमुख से धाराएँ फूटी न तरुणियों ने रंगोलियाँ सजाईं, न दीये का उजियारा , न ही उल्लास की टोकरी भरता अबीर गुलाल ईसुरी ने अखंड संन्यास की ओर कदम रख दिया ।"(पृ.सं.-340)
ऋतु ने अपने शोध का ऎसा अंत कब चाहा था ! आंकाक्षा थी कि ईसुरी और रजऊ का मिलन होता ,वे अपनी चाहत को आकार देते हुए जीवन यात्रा तय करते और फागों का संसार सजाते । मगर चाहने से क्या होता है जानने की पीड़ा और दूर होते जाने की दर्दनाक मुक्ति तन और मन मिलने पर भी भावनाओं का ऎसा बँटवारा! ऋतु और माधव दोनों के रास्ते अलग-अलग । ऋतु को माधव का संबंध विच्छेद पत्र मिलता है -
"ऋतु मुझे गलत नहीं समझना । साहित्य से आदमी की आजीविका नहीं चलती । भूख आदमी को कहाँ से गुजार देती है, यह मैंने गोधरा और अहमदाबाद के दंगों के दौरान देखा है। ऋतु मुझे क्षमा करना रिसर्च रास नहीं आई । अभावों भरी जिंदगी तो बस तरस कर मर जाने वाली हालत है, संतोष कर लेना भी गतिशीलता की मृत्यु है और इस बात से तुम ना नहीं कर सकतीं, जानेवाला टूटा हुआ होता है, उसके तन मन में टूटन के सिवा कुछ नहीं होता। तुम्हें टूटकर चाहने के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"(पृ.सं.-306-307)
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईसुरी रजऊ को अहिरिया कहकर राधा के विराट व्यक्तित्व से जोड़ना चाहते थे? या राधा जैसी मान्यता दिलवाकर कुछ छूटों का हीला बना रहे थे, जो साधारण औरत को नहीं मिलती है। नहीं तो रजऊ को मीरा से क्यों नहीं जोड़ा गया ? ईसुरी कृष्ण भगवान नहीं थे जो विष को अमृत में बदल देते। वे हाड़ माँस की पुतली अपनी रजऊ से पूजा नहीं, प्रीति की चाहना करते थे । भगवान की तरह दूरी बनाकर जिंदा नहीं रहना चाहते थे।
मैत्रेयी पुष्पा ने वर्तमान और अतीत में एक साथ गति करने वाली इस सर्पिल कथा के माध्यम से कल और आज के समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी को आमने-सामने रखने में बखूबी सफलता पाई है। रजऊ की संघर्ष गाथा तब और अधिक प्रबल हो उठती है जब वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सक्रिय रुप से जुड़ती है। ईसुरी का प्रेम जहाँ उसे कभी राधा बनाता है और कभी मीरा | वहीं वह प्रताप की मृत्यु पर जोगन की तरह विलाप करती है और अंततः देश के लिए एक साधारण सैनिक बनकर शहीद होते हुए लोकनायिका बन जाती है । ईसुरी पर शोध कर रही ऋतु एंव उसके प्रेमी माधव के बहाने मैत्रेयी पुष्पा ने शिक्षा और शोध तंत्र में व्याप्त जड़ता पर भी प्रहार किया है। ऋतु और माधव के जरिए लेखिका ने एक बार फिर रजऊ और ईसुरी की प्रेमकथा को जीवंत किया है।
"वहीं ’प्रेम’और ’अर्थ’ में एक विकल्प के चुनाव पर माधव अर्थ के पक्ष में हथियार डाल देता है।" (प्रो.ऋषभदेव शर्मा , स्वतंत्रवार्ता, 06 फरवरी ,2007)
और रजऊ की भाँति ऋतु भी अकेली रह जाती है। इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा रजऊ से लेकर ऋतु तक अपने सभी स्त्री पात्रों को संपूर्ण मानवी का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। ’कही ईसुरी फाग’ की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह है कि रजऊ और ऋतु दोनों ही अबला नहीं हैं, वे भावनात्मक स्तर पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करती हैं और उनके निकट प्रेम का अर्थ पुरुष पर निर्भरता नहीं है।