बुधवार, 11 सितंबर 2013

बेटी के नाम माँ की पहली चिट्ठी



पुराने कागजो में मिली आज -------------
----------बरसों पहले मुझे ससुराल में 
लिखी माँ की पहली चिट्ठी ------------
---------कितनी नसीहतें है इसमें 
कुछ प्यार भरी धमकी भी ------------
------------ठीक से रहना ससुराल है तेरा 
जोर से मत हंसना -धम धम कर के भाग दौड़ न करना 
पता नहीं तुझे कब अक्ल आएगी समझती ही नहीं 
हे भगवान ये पगली गुड़िया भी छुपा कर ले गई अपनी 
अच्छा सुन! उसे निकाल कर खेलना मत 
वरना सब तेरे बाबुजी और माँ को कहेंगे --------
कुछ तौर-तरीका ही नहीं सिखाया इसकी माँ ने ------
कोई शिकायत न आये वहाँ से समझी ?
रोज सुबह उठ कर बड़ों के पैर जरुर छूना 
भूलना मत सबके पैर छूना समझ रही है न ?
तुझे समझया था -- मुझे याद आया माँ ने 
विदाई के समय फुसफुसाकर कान में कहा था कुछ 
फिर मुझे हंसी आ गई ---- सब याद करके 
जब मैने तुनक कर कहा था क्या इस लड़के का भी 
न नहीं बिलकुल नहीं छूना मुझे! नहीं करुँगी जाओ 
माँ का चेहरा पीला पड़ गया, न जाने क्या करेगी ये लड़की
कोई अक्ल नहीं, सहूर भी नहीं इसे मना किया था
मत करो इसकी शादी अभी से -----
हाथ में कांपती हुई माँ की चिट्ठी का 
ये पीला जर्जर कागज़ ऎसा प्रतीत हो रहा है
मानो मेरी बीमार माँ का कमजोर चेहरा हो 
जो आज भी पीला पड़ जाता है मेरी चिंता में 
चिट्ठी के पीले पड़े कागज़ में दो बूंद आंसूओं के निशान हैं 
उन्हें छुआ वो अभी भी नम है ----- 
बस दो बूंद ढलक गई मेरी आँखों से --
बुदबुदा उठी ओंठो में इक हूक सी उठी कलेज़े में 
माँ इस बार जल्दी आउंगी मैं -तुम्हारी गोद में सर रख कर 
रोना है मुझे -- ढेर सारी बातें करनी है 
और वह गुड़िया उसकी सिलाई उघर गई है 
फिर भी सहेज़ रखा है तुमने बनाई थी न 
इस बार आउंगी उसे फिर से सी देना 
तुम सी दोगी न माँ --मै फिर से जी लुंगी 
अपना अधूरा छूटा बचपन ----- !!
--------------------- DIPTI

शनिवार, 7 सितंबर 2013

पिता की पगड़ी

पिता की पगड़ी / कपड़े की नहीं होती है
बेटी के देह की बनी होती है। 
जहाँ जहाँ बेटी जाती है 
पिता की पगड़ी साथ जाती है। 
पगड़ी का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध मात्र बेटी से है 
बेटे को उससे कोई सहानुभूति नहीं
 न ही अन्दर से
 और न बाहर से।।

बेटा चाहे कितना ही 
काला होकर आता है, 
पगड़ी की सफेदी 
बेदाग रहती है।
वह तो बेटी है कि तिनका हिला नहीं
पगड़ी पहले मैली हो जाती है।।

इसलिए तो हर बाप अपनी बेटी से कहता है 
बेटी पगड़ी की लाज रखना,
भाई से होड़ मत करना
वह तो वंश बेल है। 
अमर बेल की तरह 
उसी से घर की शोभा है।।

बेटियां बेजुबान रहें 
इसी में वे चरित्रवान हैं। 
पगड़ी कभी नहीं फटती है 
बेटियां मिटती हैं।।

पगड़ी की सुरक्षा के लिए 
कम पड़ती हैं हजारों बेटियां। 
और यह अंतहीन सिलसिला......
चलता ही रहता है अनवरत। 
पिता सुख की नींद सोता है
बेटियाँ पगड़ी की लाज रखती हैं। 

फिर भी वे पराई कही जाती हैं
क्योंकि पहनते हैं बेटे पगड़ी का ताज,
रखती हैं बेटियाँ पगड़ी की लाज ॥





प्रेम के लिए देह नहीं, देह के लिए प्रेम ज़रूरी!


मैत्रेयी पुष्पा का 2004 में प्रकाशित उपन्यास ''कही ईसुरी फाग'' स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से ध्यान आकर्षित करने वाला महत्वपूर्ण उपन्यास है । कथावस्तु को ऋतु नामक शोधार्थी द्वारा लोक कवि ईसुरी तथा रजऊ की प्रेम कथा पर आधारित शोध के बहाने नई तकनीक से विकसित किया गया है । इस शोध को इसलिए अस्वीकृत कर दिया जाता है क्योंकि रिसर्च गाइड प्रवर पी. के. पांडेय की दृष्टि में ऋतु ने जो कुछ ईसुरी पर लिखा था , वह न शास्त्र सम्मत था , न अनुसंधान की ज़रूरतें पूरी करता था । उसे वे शुद्ध बकवास बताते हैं क्योंकि वह लोक था । लोक में कोई एक गाइड नहीं होता । लोक उस बीहड़ जंगल की तरह होता है जहाँ अनेक गाइड होते हैं , जो जहाँ तक रास्ता बता दे , वही गाइड का रूप ले लेता है। ऋतु भी ईसुरी - रजऊ की प्रेम गाथा के ऎसॆ ‍बीहड़ों के सम्मोहन का शिकार होती है -


 "बड़ा खतरनाक होता है, जंगलों , पहाड़ों और समुद्र का आदिम सम्मोहन .....हम बार-बार उधर भागते हैं किसी अज्ञात के दर्शन के लिए ।''

’कही ईसुरी फाग’ भी ऋतु के ऎसे भटकावों की दुस्साहसिक कहानी है । इस उपन्यास का नायक ईसुरी है,लेकिन कहानी रजऊ की है - प्यार की रासायनिक प्रक्रियाओं की कहानी जहाँ ईसुरी और रजऊ के रास्ते बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हैं। प्यार जहाँ उनको बल देता है,तो तोड़ता भी है। शास्त्रीय भाषा में कहा जाए तो ईसुरी शुद्ध लंपट कवि है, उसकी अधिकांश फागें शृंगार  काव्य की मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए शारीरिक आमंत्रणों  का उत्सवीकरण है।

ऋतु की शोध यात्रा माधव के साथ ओरछा गाँव से शुरू  होती है । लेकिन यह क्या, कि सत्तरह गाँवों की खाक छानकर रजऊ की खोज में पहुँची ऋतु को लोग ईसुरी का पता तो देते हैं मगर रजऊ के बारे में जानकारी देना इसलिए बुरा मानते हैं चूँकि उनकी नजर में रजऊ बदचलन है । लोग विद्रूप सा चेहरा बनाकर कहते हैं , आजकल पढ़ाई में लुचियायी फागें पढ़ाई जाती हैं! यह गाँव ऋतु की  बुआ का गाँव था । ऋतु की बदनामी बुआ के परिवार की बदनामी थी । ऋतु को अपने ऊपर  झुँझलाहट होती है कि मैंने रजऊ को अपने शोध का विषय क्यों बनाया?
 "क्योंकि रजऊ के स्त्रीत्व पर कोई विचार नहीं करता, उसके रूप  में मेरी देह का अक्स लोगों के सामने फैल जाता है ।"(पृ.सं-14)
ऋतु के शोध का अगले  पड़ाव का संबंध  सरस्वती देवी की नाटक मडंली में  फाग गाने वाले ईसुरी तथा धीर पंडा से है। रामलीला में तड़का लगाने के लिए ईसुरी के फागों की छौंक ! यह क्या,  तभी एक बूढ़ी औरत मटमैली सफेद धोती पहने माथे तक घूँघट ओढ़े भीड़ को चीरती हुई मंच पर आ जाती है । उसकी कौड़ी सी दो आँखो में विक्षोभ का तूफ़ान  उठ रहा था-
 " मानो फूलनदेवी की बूढ़ी  अवतार हो । काकी उद्धत  स्वर में चिल्लाई  -’ओ नासपरे ईसुरी लुच्चा तोय महामाई ले जावे ।’ काकी भूखी शेरनी की तरह ईसुरी की  तरफ बढ़ने लगी । मुँह से शब्द नहीं आग के गोले निकल रहे थे । टूटे दाँतों के फाँक से हवा नहीं तपती आँधी टूट रही थी । काकी ने चिल्लाकर कहा, हमारी बहू की जिन्दगानी बर्बाद करके तुम इधर फगनौटा गा रहे हो। अब तो तुम्हारे जीभ पर जरत लुघरा धरे बिना नहीं जाएंगे।"(पृ.सं.-21)
दर्शक उठकर खड़े हो जाते हैं | रघु नगड़िया वाला आकर कहता है -
" भाइयों अब तक आपने फागें सुनी और अब फागें नाटक में प्रवेश कर गईं  -’लीला देखे रजऊ लीला’ काकी रघु से कहती है-’अपनी मतारी की लीला दिखा’ काकी कहती है -’आज तो हम ईसुरी राच्छस के छाती का रक्त पीके रहेंगे । धीर का करेजा चबा जाएँगे।" (पृ.सं.-22) 
काकी के कोप का आधार ? बात उन दिनों की है जब काकी का बेटा प्रताप छतरपुर रहता था और उसकी नवयुवा बहू रज्जो की उम्र बीस वर्ष से कम थी । सुंदर इतनी कि जहाँ खड़ी हो जाए, वही जगह खिल उठे । वह अपूर्व सुंदरी थी या नहीं , मगर ईसुरी के अनुराग में उसकी न जाने कितनी छवियाँ छिपी थीं ।

काकी के घर उन दिनों पंडितों के हिसाब से शनि ग्रह की  साढ़े साती लगी थी; नहीं तो मेडकी  के ईसुरी और धीर पंडा माधोपुरा की ओर न आते और रज्जो फगवारे को अनमोल निधि के रूप में न मिलती । घूंघटवाली रज्जो से अब तक ईसुरी का जितना भी परिचय हुआ वह लुकते छिपते चंद्र्मा से या राह चलते-निकलते आँखों की बिजलियों से । ऎसे ही बेध्यानी में ईसुरी एक दिन ठोकर खा गए और गिरे भी तो कहाँ; रजऊ की  गली में ! ईसुरी ने अपनी ओर से रज्जो को नाम दिया - रजऊ ।

रज्जो को घूंघट से देखने की दिलकश अदा अब ईसुरी को सजा लगने लगी ।  वे सोचते - यह सब मुसलमानों के आने से हुआ । वे अपनी औरत को बुर्का पहनाने लगे । हिंदुओं ने सोचा, हमारी औरत उघड़ी काहे रहे ? मुसलमानों के परदे   को अपना लिया पर अंग्रेजों का  खुलापन उन्हें काटने दौड़ा ।

इधर प्रताप छतरपुर में मिडिल की पढ़ाई  पूरी  न कर पाने के कारण  अपने गाँव वापस नहीं आ पाता है | इस खबर से उसकी बूढ़ी माँ एवं  पत्नी उदास हो जाती हैं । सास बहू को समझाती  - ऎसे उदास होने से काम नहीं चलेगा । स्थिति  को पलटने के लिए सास ने दूसरा नुस्खा अपनाया । फाग के पकवानों की तैयारी पूरी है,फगवारे को खिलाकर कुछ पुन्न-धरम कर लेते हैं। रज्जो के चेहरे पर हुलास छा जाता है। सास मन-ही-मन जल-भुनकर गाली भरा श्राप ईसुरी को देना शुरू  करती है।

सास रज्जो को समझाती है। पूरा मोहल्ला होली में आग नहीं लगा रहा बल्कि हमारे घर में आग लग रही है। प्रताप का चचेरा भाई रामदास भी रज्जो और फगवारे के प्रसंग को लेकर आगबबूला होता है। सास बदनामी से बचने के लिए रज्जो को मायके जाने की सलाह देती है। लेकिन रज्जो मायके जाने से साफ मना कर देती है। अपनापन उडेलते हुए सास से कहती है  -
 "हमारे सिवा तुम्हारा यहाँ है कौन ? तुम्हारी देखभाल कौन करेगा । गाँव के लुच्चे लोगों की बात छोड़ दो ।" (पृ.सं.-45)
सास रज्जो का विश्वास कर लेती है और कहती है-
"मोरी पुतरिया,भगवान राम भी कान के कच्चे थे, मेरा बेटा तो मनुष्य है।" (पृ.सं.-46)
सास रज्जो को अपनी आपबीती सुनाती है कि किस प्रकार फगवारा  उसके लिए फाग गा रहा था और उसी दिन प्रताप के दददा उसे लिवाने आए थे । उन्होंने सुन लिया था ।
''मर्द की चाल और मर्द की नजर का मरम मर्द से ज्यादा कौन समझे ! अपना झोला उठाया और चुपचाप वापस चले गए । फिर खबर आई -अपनी बदचलन बेटी को अपने पास रखो, ऎसी सत्तरह जोरू  मुझे मिल जाएगी ! फिर क्या था माँ ने डंडों से मेरी पिटाई कर डाली तथा जबरदस्ती नाऊ (हजाम) के संग सासरे भेज दिया । कहा कि नदी या ताल में ढकेल देना, अकेले हमारे देहरी न चढ़ाना  । नहीं तो इसके सासरे वालों से कहना- खुद ही कुँआ बाबरी में धक्का दे दें । हम तो कन्यादान कर चुकें हैं । ससुराल वालों ने तो अपना लिया लेकिन पिरताप के दद्दा  का कोप बढ़ता तो हथेली पर खटिया का पाया धर देते , अपने पाया के उपर बैठ जाते । डर और दर्द के मारे मैं सफेद तो हो जाती मगर रोती नहीं । यह सोचकर जिन्दा रही अपना ही आदमी है जिसका बोझ हम हथेली पर सह रहें हैं। जनी बच्चे का बोझ तो गरभ में सहती है जिंदगानी तो बोझ वजन के हवाले रहनी है ; सो आदत डाल लिया ।"(पृ.सं.48)
रज्जो सास के हाथों पर घाव के भयानक निशान देखकर काँप उठती है।

सास ईसुरी तथा पंडा को खाना खिलाते हुए वचन लेना चाहती है कि रज्जो के नाम पर अब वे फाग नहीं गाएँगे । एकाएक फगवारे खाना छोड़कर उठ जाते हैं। ईसुरी इंकार करते हुए कहता है -
 "काकी हम जिस रजऊ का नाम फाग के संग लगाते हैं वह न तो प्रताप की दुल्हन है न तुम्हारी बहू?"(पृ.सं.53) 
ऋतु के श्रीवास्तव अंकल ऋतु को सरस्वती देवी का पता देते हुए चिरगाँव जाने को कहते हैं और बताते हैं कि हिम्मती औरत है, समाज सेवा का काम करती है, लोकनाट्य में रुचि है और हर साल मंडली जोड़ती है।


सरस्वती देवी ने ऋतु तथा माधव को अपने जीवन का किस्सा बताया ।
 "विधवा हुई , मेरे संसार में अंधेरा छा गया । मगर जिंदगी ने बता दिया कि पति न रहने के बाद औरतों को अपने बारे में सोचना पड़ता है। अपने लिए फैसले लेने पड़ते हैं और फैसला ले लिया । फाग मंडली एक कुलीन विधवा बनाए , परिवार वाले यह बात कैसे सहन करते। कभी जलते पेट्रोमेक्स तोड़े गए तो कभी फगवारे को भाँग पिला दी गई । सरस्वती देवी कहती हैं -पर मैं हार नहीं मानने वाली थी , दूसरे फगवारे को खोजती फिरती क्योंकि मेरे भीतर का हिस्सा रजऊ ने खोजकर कब्जा कर लिया था । फागों में उसका वर्णन सुनकर सोचती थी कि औरत में इतना साहस होता है कि उसके पसीने की बूँद गिरे तो रेगिस्तान में हरियाली छा जाए, आँखों से आँसू गिरे तो बेलों पर फूल खिल जाएँ  । रजऊ जैसा नगीना फागों में न टँका होता तो ईसुरी को कौन पूछता ।’ " (पृ.सं.-57)
इधर मामा के छतरपुर वाले घर को आधुनिक नरक कहने वाला माधव उधर ही जा रहा था । लेकिन वहाँ के भ्रष्ट माहौल को देखकर वह वापस ऋतु के पास लौट आता है । जहाँ ऋतु के मन में माधव के प्रति प्रेम का अंकुर फूटता है वहीं मामा के घर जाने पर क्रोध भी आता है । 

सरस्वती देवी ऋतु को मीरा की कहानी सुनाती है - किस प्रकार आँगनवाड़ी के क्षेत्र में मीरा महिला सशक्तीकरण की मशाल  अपने हाथ में लेती है । गाँव की सीधी-सादी तथा ससुरालवालों द्वारा पागल समझी जाने वाली मीरा को पढ़ने की बीमारी लग चुकी थी । गाँव की सभ्यता को दरकिनार करते हुए मीरा मोटरसाइकिल चलाने का निर्णय लेती है।

मीरा सिंह की  मोटरसाइकिल पर ऋतु बसारी पहुँचती है, 90 वर्ष की बऊ से मिलने । गौना करके आई रज्जो के अपूर्व रूप  का वर्णन बऊ करती है। कहती है -
"प्रताप की बहू रूप  की नगीना, नगीने के नशे में मदहोश प्रताप।"(पृ.सं.-69)
 इधर प्रताप छुट्टी बिताकर छतरपुर वापस चला जाता है, उधर ईसुरी के चातक नयन रज्जो की बाट न जाने कब से देख रहे थे । एक ओर पराई औरत की आशिकी और फागों में फिर-फिर रजऊ का नाम लगाने वाले  ईसुरी के  यश की गाथा राजा रजवाड़ों तक पहुँची । दूसरी ओर सुंदर बहू की बदकारी गाँववालों से होते हुए प्रताप के कानों तक पहुँची । प्रताप पहले फगवारे को समझाता है, पैर पड़ता है, लेकिन सब बेकार। अंत में उसने फगवारे की पिटाई कर दी । प्रताप एक कठोर निर्णय लेता है वह रज्जो का मुँह कभी नहीं देखेगा । वह वापस छतरपुर जाकर अंग्रेजों की  पलटन में भर्ती हो जाता है । मर्द चले जाते हैं , घर की रौनक बाँध ले जाते हैं । प्रताप का विमुख होना घर की तबाही बन गया  ।

यह बात तो दीगर थी कि रज्जो ने ईसुरी को दिल से चाहा था , लेकिन यह क्या कि  फगवारे तमोलिन की  बहू के नाम पर फाग गा रहे हैं । जोगन बनी रज्जो आहत होती है । सास रज्जो की पहरेदारी करती है, रज्जो फगवारे से न मिल पाए । तभी पिरभू आकर खबर देता है -"ईसुरी जा रहे हैं आपसे आखिरी बार मिलना चाहते हैं ।" सास की परवाह किए बगैर  रज्जो रात के आखिरी पहर हाथ में दिवला जलाए प्रेमानंद सूरे  की  कोठरी की ओर चल देती है । यह कैसा अदभुत प्रेम ! नहीं देखा कि उजाला हो आया, दीये की रोशनी से ज्यादा उजला उजाला । गाँव के लोगों ने कहा , यह तो प्रताप की दुल्हन है, बिचारी अपने आदमी की बाट हेर रही है , बिछोह में तन-मन की खबर भूल गई है। इतना भी होश नहीं रहा कि दिन उग आया है। नाइन की बहू फूँक मारकर दिवला बुझा देती है । रज्जो उस छोटे बच्चे की भाँति नाइन बहू की अंगुली थामे लौट आती है जिसे यह नहीं पता कि अंगुली थामने वाला उसे कहाँ ले  जा रहा है ? रज्जो की सास कहती है-
"मोरी पुतरिया कितै भरमी हो ? पिरताप की बाट देख-देखकर तुम्हारी आँखे पथरा गई !" (पृ.सं.-91)
"रज्जो उस बुझे हुए दीए की तरह खुद भी नीचे बैठ गयी मानो प्रकाश विहीन दीये की सारी अगन रज्जो ने सोख ली , जलन कलेजे में उमड़ रही थी ।"(पृ.सं.-91) 
सास और रज्जो दोनों जोर-जोर से रो पड़ीं । शोकगीत ने आँगन को ढँक लिया । किसके वियोग में गीत बज रहा था ? प्रताप के या ईसुरी के ? दोनों जानती थीं, दोनों के दुःख का कारण दो पुरुष हैं ।

प्रताप का चचेरा भाई रामदास रज्जो का जीना दूभर कर देता है। तीन बेटियों का बाप रामदास कुल की मर्यादा बचाने तथा कुलदीपक पैदा करने के लिए एवं  प्रताप के हिस्से की जमीन हथियाने की चाह में रज्जो से शादी करना चाहता है। उसके अत्याचार से तंग आकर रज्जो घर छोड़ गंगिया बेड़िन के साथ भागकर देशपत के साथ जा मिलती है , जो देश की आजादी के लिए अपनी छोटी सी सेना के साथ अपने  प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार है। यहीं रज्जो को खबर मिलती है कि प्रताप गोरे सिपाहियों से बगावत कर अपने देश के खातिर शहीद हो चुका है। रज्जो दो बूँद आँसू अपने वीर पति की याद में श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पण करती है। शरीर का साथ वर्षों से नहीं रहा वहीं मन इस कदर बँधा था । तभी तो कहती है -
 "गंगिया जिज्जी,प्रेम के लिए देह ज़रूरी  नहीं है पर देह के लिए प्रेम ज़रूरी है । उनके तन की खाक मिल जाती, हम देह में लगा के साँची जोगिन हो जाते ।"(पृ.सं.-278)

देशपत की फौज में जासूसी का काम करने वाली रज्जो पर कुंझलशाह की बुरी नजर पड़ती है । देशपत की फौज का बाँका सिपाही राजकुमार आदित्य रज्जो को कुंझलशाह के कहर से मुक्ति दिलाता है। रज्जो आदित्य से घुड़सवारी तथा तलवारबाजी सीखती है।

1857 में अंग्रेजों ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को मान्यता देने से इंकार करते हुए रानी के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूँक दिया । रानी को बचाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेती हुई रज्जो रानी का बाना धारण करती है और  अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए रानी से पहले शहीद हो जाती है ।


इधर अपने प्रायश्चित के ताप में तप रहे ईसुरी को आबादी बेगम के द्वारा वीरांगना रज्जो के शहीद होने की खबर मिलती है । अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहे ईसुरी आँखें मूँदे आखिरी निरगुण फाग गाते हुए सदा के लिए खामोश हो जाते हैं ।
 "कलिकाल के वसंत में न गोमुख से धाराएँ फूटी न तरुणियों ने रंगोलियाँ सजाईं, न दीये का उजियारा , न ही उल्लास की टोकरी भरता अबीर गुलाल ईसुरी ने अखंड संन्यास  की ओर कदम रख दिया ।"(पृ.सं.-340)
 ऋतु ने अपने शोध का ऎसा अंत कब चाहा था ! आंकाक्षा थी कि ईसुरी और रजऊ का मिलन होता ,वे अपनी चाहत को आकार देते हुए जीवन यात्रा तय करते और फागों का संसार सजाते । मगर चाहने से क्या होता है जानने की पीड़ा और दूर होते जाने की दर्दनाक मुक्ति तन और मन मिलने पर भी भावनाओं का ऎसा बँटवारा!  ऋतु और माधव दोनों के रास्ते अलग-अलग । ऋतु को माधव का संबंध विच्छेद पत्र मिलता है -
"ऋतु मुझे गलत नहीं समझना । साहित्य से आदमी की आजीविका नहीं चलती । भूख आदमी को कहाँ से गुजार देती है, यह मैंने गोधरा और अहमदाबाद के दंगों के दौरान देखा है। ऋतु मुझे क्षमा करना रिसर्च रास नहीं आई । अभावों भरी जिंदगी तो बस तरस कर मर जाने वाली हालत है, संतोष कर लेना भी गतिशीलता की मृत्यु है और इस बात से तुम ना नहीं कर सकतीं, जानेवाला टूटा हुआ होता है, उसके तन मन में टूटन के सिवा कुछ नहीं होता। तुम्हें टूटकर चाहने के सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं है ।"(पृ.सं.-306-307)

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ईसुरी रजऊ को अहिरिया कहकर राधा के विराट व्यक्तित्व से जोड़ना चाहते थे? या राधा जैसी मान्यता दिलवाकर कुछ छूटों का हीला बना रहे थे, जो साधारण औरत को नहीं मिलती है। नहीं तो रजऊ को मीरा से क्यों नहीं जोड़ा गया ? ईसुरी कृष्ण भगवान नहीं थे जो विष को अमृत में बदल देते। वे हाड़ माँस की पुतली अपनी रजऊ से  पूजा नहीं, प्रीति की चाहना करते थे । भगवान की तरह दूरी बनाकर जिंदा नहीं  रहना चाहते थे।

मैत्रेयी पुष्पा ने वर्तमान और अतीत में एक साथ गति करने वाली इस सर्पिल कथा के माध्यम से कल और आज के समाज में स्त्री जीवन की त्रासदी को आमने-सामने रखने में बखूबी  सफलता पाई है। रजऊ की संघर्ष गाथा तब और अधिक प्रबल हो उठती है जब वह 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से  सक्रिय रुप से जुड़ती है। ईसुरी का प्रेम जहाँ उसे कभी राधा बनाता है और कभी मीरा | वहीं वह प्रताप की मृत्यु पर जोगन की तरह विलाप करती है और अंततः देश के लिए एक साधारण सैनिक बनकर शहीद होते हुए लोकनायिका बन जाती है । ईसुरी पर शोध कर रही ऋतु एंव उसके प्रेमी माधव के बहाने मैत्रेयी पुष्पा ने शिक्षा और शोध तंत्र में व्याप्त जड़ता पर भी  प्रहार किया है। ऋतु और माधव के जरिए लेखिका ने एक बार फिर रजऊ और ईसुरी की प्रेमकथा को जीवंत  किया है। 
"वहीं  ’प्रेम’और ’अर्थ’ में एक विकल्प के चुनाव पर माधव अर्थ के पक्ष में हथियार डाल देता है।" (प्रो.ऋषभदेव शर्मा , स्वतंत्रवार्ता, 06 फरवरी ,2007)
और रजऊ की भाँति ऋतु भी अकेली रह जाती है। इस प्रकार मैत्रेयी पुष्पा रजऊ से लेकर ऋतु तक अपने सभी स्त्री पात्रों को संपूर्ण मानवी का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। ’कही ईसुरी फाग’ की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह यह है कि  रजऊ और ऋतु दोनों ही अबला नहीं हैं, वे भावनात्मक स्तर पर क्रमशः परिपक्वता प्राप्त करती हैं और उनके निकट प्रेम का अर्थ  पुरुष पर निर्भरता नहीं है।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

घर-बाहर


औरतें
और अपने घरों सें;
निकल कर भी
करती हैं मेहनते ,
लड़ती हैं सुबह से शाम तक
या फिर कानाफूसी करती हैं बैठकर
चबूतरे पर शाम तक
मौसम के भीतर उठता है
वसंत ,
लेकिन घरों में कभी नहीं बदलता
मौसम ,
इनकी आँखों में ठहरते हैं ,
आंसू ज्यादा देर तक
और भींगता है आँचल का छोड़
ज्यादा देर तक
नहीं देख पाती ये मौसम कैसे बदलता है ,
केवल देख पाती हैं ये
बेटियों का बढ़ना
जंगल की घास की तरह ,
बरसात के बांस की तरह
बेटियां बढ़ रही हैं
बेटियां पढ़ रही हैं
औरतों की नजर मैं रहती हैं
पढ़ती हुई बेटियां
बढ़ती हुई बेटियां
बेटियां निकल रहीं हैं घरों से
उन्हें और बढ़ना है ,
क्योंकि घरों में तो मौसम
नहीं बदलता
सिर्फ बढ़ती है बेटियां
बेटियां जो बनती हैं -औरतें

इतिहास एवं समय की दस्तक ....कितने पाकिस्तान?



इतिहास एवं समय की दस्तक ....कितने पाकिस्तान?

हिंदी के तमाम उपन्यासकारों की श्रेणी में युगचेता कथाकार कमलेश्‍वर का उपन्यास ’कितने पाकिस्तान’ समकालीन उपन्यास जगत में मील का पत्थर साबित हुआ है। इस उपन्यास ने हिंदी कथा साहित्य तथा साहित्यकारों को वैश्विक रूप प्रदान किया। विष्णु प्रभाकर के अनुसार "कमलेश्‍वर ने उपन्यास के बने बनाए ढाँचे को तोड़ कर लेखकीय अभिव्यक्ति के लिए दूर्लभ द्वार खोलकर एक नया रास्ता दिखाया।" इस रचना में लेखक ने इतिहास और भूगोल की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास कर मनुष्य की वास्तविक समस्याओं एवं चिंताओं को सामने रखने का सफल प्रयास किया है। इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में कमलेश्‍वर ने लिखा है कि ’मेरी दो मजबूरियाँ भी इसके लेखन से जुड़ी है। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक, महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।’ इस उपन्यास ने आज के टूटते मानवीय मूल्यों को सँजोने तथा दहशत की जिंदगी में मानवता की खोज की है।

       कमलेश्‍वर ने इतिहास की गहराई में जाकर तथ्यात्मक सामग्री एवं वर्क के आधार पर तटस्थता और निष्पक्ष रूप से बँटवारे की समस्या का हल ढूँढकर नवमानवता की कल्पना को साकार रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। आज के दहशतवाद और पूँजीपतिवाद की दुनिया से नवमानवतावाद रूपी हीरे की तलाश की है जो केवल अपने चमक के बलबूते पर दुनिया को अचंभित करता है। 

       धर्म मनुष्य को सच्चाई एवं मानवता की राह दिखाता है। पर धर्म के ठेकेदारों ने धर्म की राह  को पूरी तरह बदलकर इसका प्रयोग स्वार्थ सिद्धि के लिए किया। इस संदर्भ में धर्म सच्चाई एवं मानवता का मार्गदर्शक न होकर कट्‍टरता एवं क्रुरता का प्रतीक बन गया। भारत का इतिहास गवाह है कि इस विशाल महाकाय देश का बँटवारा भी धर्म ने ही किया है। अगर इस धार्मिक कट्‍टरता को नहीं रोका गया तो पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ हीं चलता रहेगा।

        ’कितने पाकिस्तान’ एक ऎसे समय की सच्ची दास्तान है जब धार्मिक उन्माद ने लाखों हिंदू-मुसलमान के खून की नदियाँ बहाई, उनके घर लूटे एवं जलाए गये तथा माँ-बहन एवं बहू-बेटियों के आबरू लूटे गए। ये जख्म इतने गहरे थे कि इसे न हिंदू भूल पाए न ही मुसलमान। पाँच हजार वर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति को फिरंगियों तथा सौदागरों ने रेगिस्तान बना दिया एवं जाते-जाते भारत के सीने में विभाजित पाकिस्तान रूपी खंजर भी भोंक दिया। भारत में जो भी विदेशी आए भारतीय सभ्यता ने उनको आत्मसात किया। मुसलमान आए उन्हें अपना धरती पुत्र मानकर भरण-पोषण किया किंतु आगे चलकर वे शासक बन बैठे, इसे भी स्वीकार किया। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुगल शासकों ने सत्ता के लोभ में अपने ही परिवार के लोगों का कत्लेआम किया। कमलेश्‍वर ने इसे आधार बनाकर बाबर से लेकर औरंगजेब के क्रूर काल को गवाह के रूप में उपस्थित कर उन मुर्दों को इंसानी समय के अदालत में पेश किया जिन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति को एक नया मोड़ दिया। वस्तुतः हिंदू-मुस्लिम झगड़े की नींव बाबरी मस्जिद में छिपी थी। "बाबर बर्बर था! दरिन्दा था... उसने आते ही अयोध्या में हमारा रामजन्म भूमि मंदिर तोड़ा था और वहीं बाबरी मस्जिद बनबाई थी। पाकिस्तान बनना तो उसी दिन से शुरू हो गया।"(पृ.सं.६६)  कमलेश्‍वर ने इस बात को सामने लाने का प्रयास किया है कि हम बाबर को बड़ा गुनाहगार मानते है किंतु झगड़े का जड़ बाबर न होकर इब्राहिम लोदी था। इस झगड़े ने १९४७ तक आते-आते देश के अखंडत्व को खंडित कर दिया।

      कमलेश्‍वर ने इतिहास के उस समय का बयान लिया है जहाँ मानवता बार-बार कराह रही थी। अत्यंत बर्बरता एवं कट्‍टरता के साथ मानवता को सूली पर चढ़ा दिया गया। "औरगंजेब अगर अकबर के रास्ते पर चला होता तो आज हिंदुस्तान का ही नहीं दुनिया का नक्शा दूसरा होता और इस्लाम  विश्व धर्म की एक सर्वव्यापी शक्ति का अगुआ होता, लेकिन औरंगजेब यह नहीं कर पाया...।" (पृ.सं.१३३) बर्बर बादशाह औरंगजेब ने सत्ता के हवस में अपने पूरे परिवार को जीते जी सूली पर लटका दिया। दाराशिकोह जैसे मानवतावादी भाई को काफिर कहकर सिर धड़ से अलग कर दिया लेकिन दाराशिकोह फिर भी जनता के नजरों में जनराजा ही बना रहा। "हर समय ऎसे ही होते रहा है कि हर सदी में एक दाराशिकोह के साथ एक औरंगजेब भी पैदा होगा। इस दस्तूर को बदलना होगा, नहीं तो मेरे साथ-साथ तुम सबका भविष्य भी डूब जाएगा।.....अगर मैं मर गया तो तुम्हारे सारे सपने समाप्त हो जायेंगे।" (पृ.सं.२५२) कमलेश्‍वर ने इस बात पर चिंता व्यक्त किया है कि यदि हमनें इस सच्चाई के साथ झूठे दस्तूर को नहीं बदला तो कल हमारे अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित हो जाएगा, हमारा भविष्य अंधकारमय होगा। औरंगजेब ने जिसका सहारा लेकर सत्ता भोगी वही राह अंग्रेजों ने चुनी और हिंदू-मुसलमान को लड़वाते रहे।

       भूख और अपमान दुनिया के दो मूल दुख हैं लात पेट पर परे या पीठ पर चोट बराबर लगती है। वस्तुत: भूखा रखना भी एक राजनीति है घर में और घर के बाहर भी। यदि भर पेट भोजन मिले तो संभव है, मन मस्तिष्क स्वस्थ होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर विचार करे। समता और क्षमता का प्रश्न उठ खड़ा हो। भारतीय जनमानस को कंगाल बनाकर अंग्रेजों ने भूख, जाति और नस्ल की राजनीति बखूबी खेली। अंग्रेज भिखारी की तरह आए और यहाँ की तमाम जनता को भिखारी बनाकर चले गए। जाते-जाते देश के दो टुकड़े भी कर गए। लेखक ने अंग्रेजों की इस मनोवृति पर करारा प्रहार किया है। "इन अंग्रेजों के बच्चों को सोचना चाहिए ... सदियों पहले सौदागर की तरह सलाम करते आए थे, वैसे ही सलाम करो और अपने मुल्क लौट जाओ पर.... जो कमा लिया वो तुम्हारी किस्मत ले जाओ पर... जो हमारा वो तो खुशी-खुशी छोड़ जाओ।" (पृ.सं.२८७)
        इस देश की विडंबना यह रही है कि माउंट बेटेन तथा उनके सहायकों ने जिस देश की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास को न कभी देखा और न जाना तो देश का बँटवारा किस आधार पर किया।  "वर्ग तो बड़ा यथार्थ है ही पर जाति, लिंग, नस्ल और धर्म भी शोषण के भयावह हथियार रहे हैं।"(स्त्री-मुक्ति:साझा चूल्हा ; अनामिका ; पृ.सं.९) सच्चाई तो यह है कि अंग्रेज विभाजन चाहते थे। इस तथ्य से जिन्ना भी अवगत थे कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद पाकिस्तान नहीं मिलेगा। इसलिए मजहब की नस्ल का बखूबी उपयोग कर नफरत का पाकिस्तान बना "वक्त गवाह है जिन्ना की नसों में बहता खालिस हिंदुस्तानी खून जम गया था और उन्होंने एकाएक महसूस किया था कि आपसी जिदों छोटे-छोटे अपमानों और प्रतिस्पर्धात्मक अहंकार से जन्मी खालिश कैसे एक चुनौती बन जाती है और वह कौम के सपनों को तोड़ कर जाती एक मुकाबले को छुपाते हुए, अपने तरफदारों को कैसे एक विकलांग और धर्मांध सपना सौंप देती है।" (पृ.सं.५६) वस्तुतः वे भूल चुके थे कि नफरत की बुनियाद पर कोई भी मुल्क अधिक दिनों तक नहीं टिकता। पाकिस्तान एक मजहबी उसूलों की मिसाल ही तो है। मजहब के नाम पर लुटा गया एक इलाका! जिस मुल्क कहा गया। मुल्क तो टूटेगा, टूटकर रहेगा और वही हुआ बांग्लादेश का जन्म! जिन्ना को कामयाबी मिली! विभाजन हुआ पर क्या मिला आम आदमी को, उनके नसीब में तो भीख माँगना ही लिखा था। विभाजन के बाद बचा क्या सिवाय भूखमरी एवं बेरोजगारी के? "यही तो दो हिस्सों में बँट गए। भिखमंगे कबीर की विरासत है और तकसीम हो गए मुल्कों का नसीब बँटवारे ने मानवता को दफन कर दिया। यह दफन की परंपरा औरंगजेब से आज तक हम सँजोये हुए हैं। बदले की भावना तीव्र से तीव्रतर होती गयी। मजहब की आग ने चिंगारी का रूप लेकर इंसानियत का हवन किया है। जब तक हम मजहब के नफरत को दफनाएँगे नहीं, तब तक मानवतावादी विश्व नहीं बनेगा।"(पृ.सं.२५८)  इनसान की पहचान मजहब के सहारे करने की इच्छा मनुष्य में बलवती हो रही है। इनसान और इनसान की कुदरती पहचान के बीच यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान,सीरिया, लेबनान जैसे नाम कहाँ से आ जाते हैं? अब तक हमने कई आघात सहे हैं अगर इस नफरत की आग को अभी भी नहीं रोका गया तो अनेकानेक पाकिस्तान का जन्म होगा। विश्व के अधिकतर देशों में नफरत का एक पाकिस्तान बनाने की कोशिश जारी है! क्या हुआ बोस्निया में? क्या हुआ साइप्रस में? क्या हुआ तब के टूटे सोवियत युनियन में और अब के बने रशियन फेडरेशन में? क्या हो रहा है आज के अफगानिस्तान में? हर व्यक्ति नफरत के सहारे अपने ही लोगों के खिलाफ एक दूसरा पाकिस्तान को जन्म देने की तैयारी कर रहा है। विश्व का इतिहास इस बात का गवाह है कि पाकिस्तान से पाकिस्तान पैदा होता है। पता नहीं आज की मानवता किस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। अपने ही लोगों के खिलाफ लड़कर सफलता के कौन से शिखर को छूना चाहता है! मजहब के सहारे नए देश का निर्माण की यह भूख वड़ा ही वीभत्स रूप लेगी। जब तक धर्म, जाति एवं नस्ल की सर्वोच्चता तथा विश्व शक्ति बनने का नशा नहीं टूटता तब तक दूसरा पाकिस्तान बनने का सिलसिला यूँ चलता रहेगा। परिणामस्वरूप वही होगा जो नागासाकी और हीरोशिमा में हुआ था। धर्म और सत्ता को सियासी कानून के लिए नफरत में बदला जाता है तो एक नहीं तमाम पाकिस्तान पैदा होते हैं। कमलेश्वर बार-बार यह कह रहे हैं कि अगर हमनें समय की दस्तक और मानवता की कराह को नहीं सुना तो बहुत महँगा पड़ सकता है। जितना जो कुछ टूट गया है उसे भूल जाँए जो बेहतर जो टूटने के बाद बचा है उसे टूटने से बचाएँ। देश इंसानियत के आधार पर बने न कि धर्म के आधार पर। जरूरत से ज्यादा इस दुनिया का बँटवारा हो चुका है अब और नहीं।

       विगत तिरसठ वर्षों का इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान में पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान हैं और पाकिस्तान से ज्यादा इस्लाम समझने वाले लोग हैं। हिंदुस्तान इन मुसलमानों को अपना धरती पुत्र मानकर सहेजे हुए है। इस देश ने धर्मनिरपेक्षता की नई संस्कृति का पाठ पूरे विश्व को सिखाया है। यहाँ की विविधता में एकता, सामयिक संस्कृति ने विश्व के सामने एक नया आदर्श उपस्थित किया है।

       कमलेश्‍वर ने बड़े ही कठोर शब्दों में अंग्रेजों के कूटनीति का भी पर्दाफाश किया है। अंग्रेजों ने व्यापार के साथ अपनी आत्मा को मुक्ति देने का झूठा नाटक किया। आत्मा मुक्ति का अभियान इन पांखडियों ने घोड़ों पर बारूद लादकर किया। वास्तव में ये तो आत्माओं को गुलाम करने निकले थे। इनके इसी हवस ने पुरातन सभ्याताओं को ध्वस्त किया। अगर इतिहास के पन्नों को खंगाला जाए तो बौद्ध धर्म भी भारत से निकलकर समस्त एशिया में फैला था लेकिन कहीं भी खून की एक बूंद तक नही गिरी। बौद्ध साधु घोड़ों पर चढ़कर बारूदी आक्रमण करने वाले योद्धा नहीं थे। वे हिमालय जैसा पर्वत पैदल पार कर चुके थे। उनके हाथ में भाले, तलवार और बंदूकें नहीं थीं। उनके पास था शांति, अहिंसा और करूणा का संदेश एंव हाथ में बौद्धि वृक्ष।

       कमलेश्‍वर ने वर्तमान में बढ़ता हुआ बाजार, मुक्त व्यापार के नाम पर नव साम्राज्यवाद की स्थापना पर भी गहरी चिंता व्यक्त किया है। भुमंडलीकरण के इस दौर में मानवता तो नदारद हो गयी है। विदेशी सौदागरों की जमात ने अपना साम्राज्य फैलाकर हिंदुस्तान को जकड़ लिया था, वे ही फिरंगी अब विश्व को अपने शिंकजे में लेना चाहते हैं। सभी को ज्ञात है कि बाजार के लिए ही साम्राज्य बनाए जाते हैं एवं बाजार की नाभि साम्राज्य से जुड़ी होती है। इस साम्राज्य का मुख्य आधार है बाजार ! बाजार! और बाजार!  वर्तमान दौर में इसका नाम बाजारवाद है। बाजारवाद के नाम पर फिर से नये जाल फैलाकर मानवता की आत्मा को गुलाम बनाया जा रहा है। क्या हुआ जापान के उस दो नगरों का जिनको अणु परीक्षण करके उड़ा दिया गया। आज भी हीरोशिमा की कराह सुनाई देती है। "मेरे ऊपर जो परमाणु बम गिराया था वह दुर्घटना नहीं युद्ध समाप्त करने के नाम पर सोचा समझा परीक्षण था। मानव जाति पर किया गया जघन्य आक्रमण.... अरे दरिंदो ! देखो मेरे इस क्षार-क्षार हुए शरीर को। नागासाकी के क्षत-विक्षत भूगोल को, माँ के कोख में विकलांग हो गई संतानों को, प्रचण्ड तापमान में पिघलकर वाष्प की तरह उड़ जाने वाले लाखों मनुष्यों को, जल-जलकर मुँह तक आकर न निकलने वाली मृत्यु की चीत्कारों की .... घुटती साँसों में दम तोड़ती बेबस उसाँसों को, हिचकी लेती हिचक-हिचक करती जिंदगी को, देखो मुझे मैं हीरोशिमा हूँ। मैंने खुद झेला है मानव विनाश के मृत्यु को। परमाणु नाभकीय संकट को जन्म देने वाले जितने अपराधी हैं, मैं उन्हें उनकी कब्रों में चैन से सोने नहीं दूँगा। वे सभी वैज्ञानिक चाहे फ्राँस के हो या जर्मनी, ब्रिटेन या रूस के वे मानवद्रोही और जघन्य अपराधी हैं इन्हें कब्रों मै चैन से सोने की ऎय्याशी बख्शी नहीं जा सकती।"(पृ.सं.३०५) भौतिक विकास के नाम पर काफी नुकसान किया जा रहा है। आज संसार की तमाम प्रयोगशालाओं में भीषणतम मौत का उत्पादन शुरू करने की होड़ लगी हुई है। सफल परीक्षण के बाद अब युद्ध में रत राजनीतिक सत्ताएँ मौत का थोक उत्पादन करना चाहती हैं। कुछ करना होगा नहीं तो ब्रह्मांड से पृथ्वी का नामोनिशान मिट जाएगा, क्योंकि, सृष्टि के नियमों के अनुसार जो जन्म लेता है वह मरता है, जो जिस काम के लिए बना है उसे वह पूरा कर जाता है, वैसे ही परमाणु बम जो बना रहें है वह शांति के लिए न होकर विध्वंस के लिए ही है, जितने भी बम बनेंगे वे सब के सब इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद करने के लिए काफी हैं।

       अंत में यही कहा जा सकता है कि हम उस भयावह विभाजन को रोकने में कामयाब नहीं हो पाये पर अब हमें मजहब का, बाजार का, व्यापार का तथा परमाणु परीक्षण का नकाब पहनकर मौत का मंजर तैयार करने वालों को बेनकाब करना जरूरी है। भले ही देश का बँटवारा सरहद से हुआ है पर मानवता तथा नैतिकता को दुनिया की कोई भी सरहद विभाजित नहीं कर सकती। इसलिए मानवता तथा नैतिक मूल्यों का जतन करना आज की प्रमुख माँग है। जिससे मानवता एवं भाईचारे का बीज पुनः अंकुरित हो जाए। बौद्धिक विमर्श पर लिखा गया इस उपन्यास को आखिरकार कहीं रूकना तो था सो रूक गया पर मन का जिरह अभी भी जारी है। हालॉकि अच्छी पुस्तकें हर काल में सामने आती हैं, आती रहेंगी, इस पुस्तक के लिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि जिस मुकाम पर यह पहुँची है, वहाँ हमेशा बनी रहेगी। 

        

अर्पणा दीप्ति
समीक्षित कृति : कितने पाकिस्तान
लेखक  :  कमलेश्वर
 संस्करण-२००८
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज,
कश्मीरी गेट नई दिल्ली-०६