बुधवार, 26 दिसंबर 2018

“तुम मिली......जीने को और क्या चाहिए”





था बिछोह दो दशकों का भारी,
विलग हो हुई अधूरी;
बस साँसे थी तन में ,
शक्तिहीन मन-प्राण |

थे कुछ शिकवे और शिकायत ,
उस अनंत सत्ता से ;
बनी फरियादी किया फरियाद ,
याद किया तुम्हें जब-जब ,
नयन-नीर-सजल
अधीर मन प्राण |

हुई आज पुनः सम्बल
पाकर तुमको-
एक क्षण सहसा चौंकी !
कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं !!

बातें कर तुमसे बहुत रोई ,
होती जो तुम साथ मेरे ;
मिलकर हम देते जग को नई दिशा,
एक नया क्षितिज एक नया उजियारा ||

हाँ ! वो तुम्हीं तो थी
करती थीं मुझमे नव उर्जा का संचार ;
विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखे |


थे पथ दिशाहीन;
था संघर्षरत तन,
पथ पर थे अंगारे ,
झुलस रहा था मन-प्राण |


काश होती जो तुम ,
पथ के शूल बनते फूल ,
अंगारे देती शीतलता |

उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर ;
हुआ नाभिनाल आबद्ध ,
हुई ममत्व से सम्बलित |

क्या भुलूँ क्या याद करूं ?
कहाँ-कहाँ से गुजर गई ?
अस्तित्व के जद्दोजहद में,
वय के चार दशक बीत चुके हैं,
पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी |

शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे
बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;
अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा ,
गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे ;
बस है यही कहानी ||

तुम नहीं बदली बिल्कुल;
आज भी हो वैसी हीं,
विधि के ये एहसान नहीं कम;
पाया तुमको फिर से
आओ बैठे कुछ क्षण;
मैं बोलूं तुम सुनना ,
दो दशकों का दूँ ;
तुमको लेखा-जोखा,
तुम कुछ अपनी कह लेना;
मैं सुनाऊं सबसे ज्यादा ||


तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-
“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना|”
मेरी दुआ कुबूल हुई |
तुम्हारी मानस की चौपाई-
“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू / सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ||”
और तुम मुझे मिली |
“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है , सपने देखना कभी नहीं छोड़ना |”
दिनांक -4-6-1998 (महरानी रामेश्वरी महिला महाविद्यालय छात्रावास दरभंगा)
अर्पणा दीप्ति





गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

प्यार अगर इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम जैसा होता



अमृता प्रीतम पर कुछ लिखना जैसे आग को शब्द देना, हवा को छुकर आना चांदनी को अपनी हथेलियों के बीच बांध लेना | प्रेम में डूबी यह स्त्री आजाद थी और खुद्दार भी उतनी ही | हालांकि प्रेम और आजादी दो विरोधाभासी शब्द हैं |प्यार जहाँ किसी को सिरे से बांधता है तो  वहीं आजादी हर बंधन को तोड़कर खुली हवा में  जीने और सांस लेने का नाम है | लेकिन अमृता ने प्यार के साथ आजादी को जोड़कर प्यार के रंग को थोड़ा और चटख और व्यापक बना दिया | यह खुद को आजाद करना ही था की सिर से पाँव तक साहिर के प्रेम में डूबे होने, तथा इस प्रेम के कारण अपनी बंधी-बंधाई गृहस्थी छोड़ने के बावजूद जब अख़बार में उन्हें यह खबर पढ़ने को मिलती है कि साहिर को उनकी नई मुहब्बत मिल गई , फोन की तरफ बढ़े उनके हाथ पीछे खिंच जाते हैं | अमृता न रोती है न आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत करती है | यहाँ प्रेम के साथ खुद्दारी की बात जो ठहरी | अपनी जिन्दगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजर जाती हैं| अमृता को तब नर्वस ब्रेकडाउन भी हुआ , जिससे वे बमुश्किल उबरी थीं| उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखती हैं जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविता उन्होंने इसी दौर में लिखीं |

“रसीदी टिकट” की भूमिका में अमृता लिखती हैं –‘मेरी सारी रचनाएँ,क्या कविता क्या कहानी क्या उपन्यास सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं | मेरी दुनियां के हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुई | एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और उन्होंने सारी उम्र साहित्यक समाज के माथे के बल भुगते हैं|’

अपनी रचनाओं का यह परिचय न सिर्फ अमृता के विद्रोही तेवर को बताता है, बल्कि साहित्यक समाज के लिए उनके विक्षोभ और दुःख को भी दर्शाता है| हालांकि यह सच अमृता के हिस्से का सच होते हुए भी कुछ मायने में अंशत: सच है |यह सच है कि अपनी बगावती तेवर ने उनके हिस्से में हमेशा मुश्किलों को डाला |

यूँ ही नहीं एक दौर के पढी-लिखी लडकियों के सिरहाने अमृता की “रसीदी टिकट” हुआ करती थी | बल्कि उनके जीने-रहने के तौर तरीके भी कापी किए जाने लगे | अमृता आजाद ख्याल इन लड़कियों की रोल माडल रहीं | सबसे ख़ास बात यह कि इनमे से ज्यादातर लड़कियों के लिए उनके क्षेत्र और भाषा की लेखिका नहीं थीं | भाषा की दीवार से परे अपने शब्दों के पंख को उन्होंने खुला आकाश दे दिया था | अमृता का यही आकर्षण उन्हें ख़ास बनाता है | प्रेम और आजादी का चटख रंग उन्हें इमरोज में मिला | इस बात का प्रमाण अमृता के एक पत्र में मिलता है जो उन्होंने भारत के  स्वतंत्रता दिवस के दिन किसी अन्य देश में लिखा था | वे लिखती हैं –“इमुवा,अगर कोई इंसान किसी की स्वतंत्रता दिवस हो सकता है तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो......”| यह प्यार के सदियों से चले आ रहे बंधे-बंधाए दायरे को विस्तृत करना था | इसमें अमृता से रत्ती भर भी कम हाथ इमरोज का न था |

प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है | पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता,शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं| खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है | किसी ऐसी स्त्री से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना जो आपकी नहीं है | इमरोज यह जानते थे और खूब जानते थे | उस आधे-अधूरे को ही दिल से कबूलना और पूरा मान लेना ठीक वैसे ही जिसे दुनियादारी की भाषा में प्रेम अँधा होना कहा जाता है |

अमृता अपने और इमरोज के बीच के उम्र के सात वर्ष के अंतराल को समझती थीं | अपनी एक कविता में वे कहती हैं- “अजनबी तुम मुझे जिन्दगी की शाम में क्यों मिले ?/ मिलना था तो दोपहर में मिलते |” जब इमरोज ने अमृता के साथ रहने का निर्णय लिया अमृता ने  इमरोज से कहा- ‘एक बार तुम पुरी दुनिया घूम आओ, फिर भी अगर तुम मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं .....मैं तुम्हें यहीं इन्तजार करती मिलूंगी|’ इसके जबाव में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा, ‘हो गया अब तो .....’ इमरोज के लिए अमृता के आसपास ही पूरी दुनिया थी | अमृता बचपन से बेचेहरा देखे जाने वाले जिस पुरुष की खोज में पुरी उम्र भटकती रही, वह शक्ल इमरोज के सिवा किसी और का हो ही नहीं सकता था | इस दुनिया से जाते-जाते अमृता इस सच को समझ चुकी थी, इसलिए उनका अंतिम नज्म “मैं तुम्हें फिर मिलूंगी” इमरोज के नाम थी केवल इमरोज के लिए |

साहिर वह शख्श नहीं थे | उतनी हिम्मत नहीं थी उनके दिल में या फिर दुसरे शब्दों में कहें तो प्यार | प्यार हमें हमेशा हमें हिम्मत की उँगलियाँ पकड़कर चलना सिखाता है | अगर लोग यह कहते हैं कि अमृता का प्यार एक तरफा था तो यह गफलत वाली बात भी नहीं | साहिर के लिए यह प्यार एक मुकाम जैसा था, तो अमृताके लिए उनकी पूरी जिन्दगी की रसद और उसकी मंजिल के जैसा | यह प्यार-प्यार के बीच का फर्क था | दो दृष्टियों और जीवनशैलियों या फिर कह लें तो दो व्यक्तित्व के बीच का फर्क भी | कुछ लोग इस प्रेम कहानी का खलनायक साहिर की माँ को मानते हैं, कुछ लोग अमृता के पिता और पति को | कुछ लोगों के लिए यह दीवार मजहब की थी | अमृता की माने तो खलनायक का वह काम उन दोनों की चुप्पी और उनके लिखने के भाषाओं के बीच उस अंतर ने किया | हालांकि यह तर्क सम्मत नहीं जान पड़ता | यह सब जानते हैं कि अमृता पंजाबी में लिखा करती थीं और साहिर उर्दू में हालांकि साहिर की मातृभाषा पंजाबी थी |

कुछ भी कह लें लेकिन अमृता की आत्मकथा को पढ़ने से यह साफ पता चलता है कि कमजोर कड़ी वे नहीं थीं | अपनी जिन्दगी और अपने प्यार से जुड़े अनुभवों को गीतों में ढालने में माहिर साहिर ने तो बड़ी सादगी से यह लिख दिया कि-“भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है;-‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों |’ पर यह अजनबी बन जाना अमृता के लिए कभी आसान नहीं रहा |

साहिर के लिए प्रेम बहुत आगे चलकर सामाजिक इन्कलाब की राह बनता है;वहीं अमृता के लिए उनकी मोहब्बत ही उनका इन्कलाब रही | छोटी-सी उम्र में तय की गई मंगनी का ब्याह में बदलना | फिर दो बच्चे होने के बाद उस ब्याह से, उस अकहे प्रेम के लिए निकल पड़ना कोई आसान तो नहीं रहा होगा | पर कोई आसान राह अमृता ने चुनी ही नहीं | वह चाहे बसी-बसायी गृहस्थी से निकल आना हो, या फिर अपनी पूरी जिन्दगी ब्याह के बगैर इमरोज के साथ बिता देना |

लिव-इन की जिस परिपाटी को आज हम फलता-फूलता देख रहें हैं, अमृता ने उसकी नींव 1966 में ही रख दी थी; पर इससे उनके रिश्ते पर कभी न कोई फर्क आना था  न आया | और न ही उनकी जिन्दगी पर इसका कभी कोई असर रहा | साहिर और इमरोज से अपने रिश्ते का बयान करते हुए अमृता कहतीं हैं-“साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत |” इमरोज से बेपनाह प्यार करने के बावजूद भी वे अगर साहिर से अपने प्यार को नहीं भूल सकीं तो बस इसलिए कि स्त्रियाँ अपने हिस्से के सुख-दुःख को कभी विदा नहीं करती | एक कारण यह भी हो सकता है कि अपने लाख बगाबती तेवर के बावजूद वे अपनी पहली शादी से मिले पति के नाम प्रीतम को जिन्दगी भर साथ लेकर चलती रहीं |

अगर प्यार कोई शब्द है तो अमृता ने उसे अपनी कलम की स्याही में बसा लिया था | अगर वह कोई स्वर है तो अमृता के जीवन का स्थायी सुर रहा | जिस तरह अमृता ने इमरोज के लिए यह कहा कि अगर स्वाधीनता दिवस किसी इंसान की शक्ल ले सकता है, तो वह तुम हो | ठीक उसी तहर प्रेम अगर किसी इंसान की शक्ल में आए तो उसकी शक्ल अमृता जैसी होगी |
जिन्दगी की कहानी बस इतनी सी है ......एक रसीदी टिकट
(Revenue stamp) के पीछे भी लिखो तो काफी है ......!  
    
                                                 अर्पणा दीप्ति