शुक्रवार, 25 मई 2018

मैं क्यों लिखती हूँ ?-भाग 5




मैं साथ चलना चाहती थी !

उसे कविता पढने और सुनने का शौक है और उसकी आत्मा को संगीत का, कविता दोनों काम कर रही है | वाल्टेयर ने कहा है कि कविता आत्मा का संगीत है , तो यह भी सच है कि संगीत आत्मा का भोजन है | वो चाहती थी कि आत्मा को बेहतरीन भोजन मिले ; इसलिए तो वो बेहतरीन कविता लिखना चाहती थी | उसे कविता की खोज अनवरत रहती थी | कविता न तो रियाज से बनेगी और न पढ़ने से | रियाज से नृत्य में निखार आ सकता है; वाद्य यंत्र काबू में आ सकते हैं और अध्ययन से बौद्धिकता की सीमा बढाई जा सकती है ; लेकिन कविता या तो आएगी या नहीं आएगी | यदि आप चल सकते हैं तो नाच भी सकते हैं किन्तु कविता का सम्बन्ध आत्मा से है, यह ह्रदय का विषय है |
अर्पणा दीप्ति 


कविता की दुनिया बड़ी रहस्यमयी है ! कविता को चोरी किया जा सकता है , परन्तु लिखने की तकनीक को कैसे चोरी करोगे आप | एक कहानी मुझे याद आ रही है- “एकबार की बात है चिड़ियाँ और मधुमक्खी में दोस्ती हुई | चिड़ियाँ ने मधुमक्खी से कहा कि तुम इतना मेहनत करके शहद बनाती हो ; इंसान आता है तुम्हे खदेड़ कर भगा देता है और तुम्हारा शहद चुरा लेता है | मधुमक्खी ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा-भले ही इंसान मेरा बनाया हुआ शहद चुरा लेता है ; परन्तु वो आज तक मेरी शहद बनाने की तकनीक को नही चुरा पाया !

वैश्वीकरण और बाजारवाद के इस दौर में मौलिकता का अधोपतन हुआ है | आज भी कुछेक अनछुए गाँव बचे हुए हैं, जहाँ मौलिकता को महसूस किया जा सकता है ; छुआ जा सकता है | गाँव की सबसे खुबसूरत बात यह है कि घर की दहलीज से ही खेतों की सीमा आरम्भ होती है | खेत की सीमारेखा तय करनेवाले मेड़ के पास कुछ हिस्से घास के लिए होते हैं | वसंत के मौसम में इन्ही स्थानों पर आकाशवर्णी तथा पीले फूल खिलते हैं ; रंग-बिरंगी तितलियाँ और भंवरे फूल दर फूल सैर करते हैं | क्या मजाल फूल या तितलियों की कोई पंखुरी टूट जाए ! चिडियों की अलग दुनिया तो झींगुर भरी दोपहरी में अपना तान छेड़े हुए | पहले चिड़िया, फूलो, तितलियों के लिए लिखा फिर दोस्तों के लिए | गाँव छुटा , तालाब बिछड़े, नदियाँ बिछड़ी, दोस्त बिछड़े | इसके किस्से भी डायरी के पन्ने में दर्ज हुए | फिर इधर से नजर उधर गई तो देखा जो लिखा वह तो व्यर्थ था ! कलम तो भूख, दुःख, अन्याय और भ्रष्ट व्यवस्था आदि पर लिखने के लिए बनी हुई है, असली मुद्दे तो ये हैं | उसने मन में एक सुंदर समाज की तस्वीर गढ़ ली ; अब बेचैनी और बढ़ने लगी | उसको हमेशा इस बात की पीड़ा रहती थी कि जो छवि उसके मन में इस समाज की है वो हकीकत क्यों नही बन पा रही है ? अब उसका क्रोध विद्रोह में बदलने लगा | समय बीतता गया- तस्वीर लगभग वैसी की वैसी रह गई | उसे डायरी के पन्नों पर अपनी बात लिखने से थोड़ी राहत मिलती ; तनाव कम होता | एक रात उसकी आँखों में सुनहरे सपने आए | उस रात उसने कुछ नहीं लिखा , बस जो लिखा था उसे नष्ट कर दिया | मन हल्का हुआ नींद गहरी आई |

समय पानी की तरह बहता गया | व्यवस्था में ज्यादा बदलाब नहीं हुआ ; बस चल रहा है जैसे-कैसे | रोटी की व्यवस्था में संघर्ष की दिशा मुड़ गई | बेचैनी बराबर बनी रही | मन उदास भी रहता संगीत सुनना छूटने लगा | सुन्दर चीजें भी आकर्षित करने में असमर्थ होने लगी | पढने-लिखने का अब उसका मन नहीं करता ; मन में युद्ध चलता रहता | विचारों को किससे साझा करे ? अपनी परेशानी में किसे शामिल करे ?

एक दिन चलते-चलते उसका हाथ एक दोस्त ने धीमे से मगर मजबूत पकड़ और अद्भुत गर्माहट के साथ पकड़ा और कहा मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ | उसे लगा कि यह साथ कभी न छुटने वाला है | आँखों में तैरते सपने एक जैसे ही थे ! अचानक आसपास तितलियों का उड़ना और फूलों का खिलना इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि कठिन समय आसान होने वाला है | उस रात उसने कविता लिखी सुबह संगीत सुना | दिन में सूरज की रोशनी में छिपे सात रंग देखे | तब से वह पुनः अपनी अनुभूतियों को लिख रही है | हवा के लिए लिख रही है, मिट्टी के लिए लिख रही है, एक दोस्त के लिए लिख रही है ........|
     वो इसलिए भी लिखती है की बहुत सारे अनुभूतियों को व्यक्त नहीं कर पाती थी , बहुत सारी बातों को संकोचवश कह नही पाती थी | छोटी-छोटी बातों की शिकायत तो करती थी , लेकिन अपनी सम्वेदनाओं को व्यक्त नहीं कर पाती थी | इसलिए लिखती थी लिखना उसके लिए संवाद जैसा था ! जाने अनजाने में कि गई गलतियों की माफी के लिए लिखती थी | जो कुछ गलत है उसके विरोध में लिखती थी ; सच्चाई के पक्ष में भी डटकर लिखती थी | वो इसलिए भी लिखती थी ताकि सच ज़िंदा रह सके | दरअसल वह जीना चाहती थी ; अपनी यादों को संजोए रखना चाहती थी कठिन समय में मनोबल ऊँचा बनाए रखना चाहती थी |
 
अंतिम बात यह कि फिर सभी कवि क्यों नही बन जाते ? इसका सीधा उत्तर है कि सभी प्रेम भी तो नहीं करते ! प्लेटो ने ठीक कहा है – “प्रेम के स्पर्श से सभी कवि बन जाते हैं |”  

    






बुधवार, 23 मई 2018

मैं क्यों लिखती हूँ ? भाग-4




अनुभूतियाँ मन के अंत:स्थल में अनेकानेक  प्रतिक्रियाएं और विचलन पैदा करती हैं. संवेदनशील

 व्यक्ति मात्र निजी अनुभवों से ही विचलित नहीं होता अपितु अपने आस-पास घटित होने वाली

 घटनाएं भी उसे उद्वेलित करती हैं. विचलन का विरेचन ही लेखन है. जीवन की निस्सारता, भीड़ में

 भी अकेले रह जाने की कसक, हाथों से सरकती रेत की मानिंद पल-पल छीजती उम्र, रिश्तों में ठगे

 जाने का एहसास…. और ऐसे कितने ही भूले-भटके भाव मन के आकाश पर उमड़-घुमड़ कर छातें हैं

 और बरस जाना चाहते हैं. कहने-सुनने की सीमा से परे जब मौन मुखर होना चाहता है तो लिखना

 अनिवार्य हो जाता है. लेखन स्व से संवाद है, आत्म का साक्षात्कार है.
अर्पणा दीप्ति 


मन के निगूढ़ अंधकार में खदबदाते कहे-अनकहे सत्य शब्दों में ढल कर ही मुक्ति पाते हैं..... और
 मुक्ति भला कौन नहीं चाहता ? यह मुक्ति कामना मनुष्य को कभी जंगलों में भटकाती है, कभी
 धन, पद-प्रतिष्ठा के चंगुल में फांसने का प्रलोभन बन जाती है, कभी देह के मायावी लोक की
 देहलीज़ पर ला खड़ा करती  है और कभी अहसासों को लफ्ज़ों का जामा पहनाने के जोखिम में
 धकेल देती है. कोई नहीं जानता कि मनुष्य अपनी जीवन यात्रा का चुनाव स्वयं करता है अथवा
 कोई अज्ञात लिपि उसके भविष्य का निर्धारण करती है. कोई नहीं जानता कि कुछ बेचैन रूहें
 क्योंकर दर्दजा बन कर जीने के लिये अभिशप्त होती हैं. अपने-पराये, सब का दर्द जिनके भीतर
 पलता है, परवान चढ़ता है और एक दिन ज्वालामुखी सा फूट पड़ता है.... कूल-किनारे तोड़ता हुआ 
 अनुभूतियों से लबालब भरना और बह जाना, फिर से भरने की बाट जोहना और दोनों हाथों से
 उलीच देना, यही तो है लेखन. मैं क्यों लिखती हूँ? यह सवाल कई बार पूछा गया है मुझसे. मैंने खुद
 से भी कई मर्तबा जानना चाहा है कि आखिर लिखना मेरे लिए लाज़िमी क्यों है? इतना ही कह 
सकती हूं कि गहरी उत्कंठा, छटपटाहट, असंतोष, वैचारिक ऊहापोह और मेरे भीतर कसमसाती व्यग्रता
 जब तक शब्दों का जामा ना पहन ले, मुझसे जिया नहीं जाता | ऐसा लगता है कि मेरे अन्तर्मन में मुझसे ही छिपकर बैठा कोई हमसाया जो सांसारिकता में उलझ कर भी कहीं दूर खड़ा साक्षीभाव से
 दुनिया का तमाशा देखा करता है, लिखना उसी रूहपोश की मानसिक खुराक है. जीवन में कई बार
 यह साक्षीभाव छूटा और सालों-साल लिखना भी छूट गया. तब भी मैं ज़िंदा थी, उम्र के कोस भी तय
 हो ही रहे थे मगर हमेशा लगता था कि कुछ है जो कम है. देकार्ते ने कहा था कि ‘मैं सोचता हूँ
 इसलिए मैं हूं’ और मैं कहना चाहती हूँ कि ‘ मैं लिखती हूँ इसलिए मैं हूँ ’

मन

रोजी-रोटी के सवालों से फारिग होकर

कभी सच में मिलना मेरे हमसफ़र!

किसी बाग के कोने में

हरे-भरे छतनार पेड़ तले,

मेरा हाथ थाम कर मुझे

महसूस करना कभी,

मैं आज भी तुम्हारे स्पर्श

की तपिश में पिघलना चाहती हूं।

कानों में फुसफुसा कर

कोई भूली-बिसरी बात कहना
,
मुझे याद दिलाना कि मेरा होना
,
तुम्हारे जिन्दा रहने के लिए कितना जरूरी है !

रोज सुबह एक ही घर की

साझी छत के नीचे
,
अलग-अलग कमरों में बैठे हम,

इतने दूर हो गए हैं

कि कदम भर का फासला

मीलों में बदल गया है।

अपने दिन-रात से दो पल

मेरे लिए चुरा कर
,
कभी सामने आ कर बैठो तो सही,

शायद उस पल मैं तुम्हें बता सकूं

कि एक अर्से से मेरा

तुमसे मिलने का मन है।


         अर्पणा दीप्ति 

सोमवार, 21 मई 2018

मैं क्यों लिखती हूँ-भाग 3




बची रहेगी यह धरा जब तक हम-आप इस पर चहलकदमी करते रहेंगें !

सामान्यत: मैं कविता लिखने से बचती हूँ | साहित्य के इस विधा में पूर्णता का अधिकार मुझे नहीं है  | पर कभी-कभी शब्द घनीभूत होकर जेहन पर इतने भारी हो जाते हैं तब मैं केवल माध्यम बन उन शब्दों को रास्ता भर देती हूँ | अपने आस-पास के समय को जब सम्वेदनशील होकर देखती हूँ , तो शब्दों की पीड़ाओं से भर जाती हूँ | या फिर यूँ कहूँ की शब्द जेहन में खदबदाते(उबलना) हैं जिससे हिय (कलेजा) के भीतर कुछ दाजने (जलना) सा लगता है | उस दाज को जब शब्द का रूप देकर पन्नों पर ढालने लगती हूँ तो मई-जून के तपते रेगिस्तान में पहली बारिश के बाद धीरे से उठती ठंढक महसूस होती है | ये शब्द कभी कहानी, कविता, रिपोर्ताज के आकार  में ढलने लगते हैं लेकिन पीड़ा बहुत निजी होती है वह डायरी में ही उतरती है |

अर्पणा दीप्ति 

अगर खुद से प्रश्न करूँ कि मैं कविता क्यों लिखती हूँ ? तो दो-चार वजह सामने आती है-कई बार तो कविताएँ बेहद निजी पलों की फुसफुसाहट होती है तो कुछ subtext सबटेक्स्ट होती है जिसे कभी सीधे-सीधे बोला या कहा नहीं गया ! कुछ कविताएं हमारे आसपास में फैली अव्यस्था और बेचैनी का प्रतिरूप होती है, तो कुछ सपाट बयानबाजी होती है, जिसमे साधारण मन के सुख-दुःख, खुशी-पीड़ा अभिव्यक्त करती हुई नजर आती है | किसी विदेशी कवि ने कहीं लिखा है कि “ जीवन और मृत्यु के बीच जो भी कुछ हमारा दैनंदिन क्षण होता है, वह भी प्राथमिक तौर पर काव्यात्मक ही होता है|” यानि भीतर और बाहर का सन्धिस्थल, कालहीनता में आंतरिक बोध और क्षणभंगुरता के बाह्य बोध के बीच |

सच कहूँ तो जब कविता पहली बार मोबाईल,लैपटाप,डायरी और रद्दी पैम्पलेट पर उतरती है तो वह रेगिस्तानी गाँव के लिए पहली बारिश से सनी मिट्टी की सौंधी खुशबू लिए होती | फिर धीरे-धीर क्राफ्ट और ड्राफ्ट के ट्रीटमेंट के साथ मेट्रो के सभ्य लोगों जैसी बन जाती है | नाईजेरियन कवि बेन ओकरी ने कहा था कि “हमे उस आवाज की जरूरत है जो हमारी खुशियों से बात कर सकें, हमारे बचपन और निजी राष्ट्रीय स्थितयों के बंधन से बात कर सके वह आवाज जो हमारे संदेह, हमारे भय से बात कर सके ; और उन अकल्पित आयामों से भी जो न केवल हमें मनुष्य बनाते हैं बल्कि हमारा होना भी बनाते हैं |” इस लिए कविता मेरे लिए स्वांत सुखाय पहले है जिसके साथ समाज,देश,और मानवता की चिंताएं सहजता के साथ आती है | कभी भी मैंने उद्देश्य, विचारधारा या वर्ग को ध्यान में रखकर लिखने का प्रयास नहीं किया |

तपते रेगिस्तान में जून की भीषण गर्मी में मटके के ठंढे जल को पीते हुए तृप्ति का अहसास मुसाफिर करता है ठीक वैसा ही अहसास बेचैन करती हुई पीड़ा रात के तीन बजे कागज पर उतरती कविता को देखकर होती है | पुन: यही कहूंगी विपरीत समय में एक सम्वेदनशील मन को यह मासूम कविताएँ ही ज़िंदा रखती है वरना यह क्रूर तपता परिवेश झुलसाने के लिए काफी है |       
    

रविवार, 20 मई 2018

मैं क्यों लिखती हूँ?-भाग 2



To write is thus to disclose the world and to offer it as a taste to the generosity of the reader-why write?
आलेख में ज्याँ पॉल सात्रं द्वारा लिखित ये पंक्तियाँ की इस प्रकार लिखना की दुनिया को उजागर किया जाए, तथा इसे पाठक की सदाशयता पर छोड़ा जाए की वह इस कार्य को अपने हाथ में लें |  सात्रं की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय है |

अर्पणा दीप्ति 

अक्सर मेरे मन में यह सवाल उठता है की मैं क्यों लिखती हूँ ? जब बिना लिखे हुए भी दुनिया में अधिकाँश लोग अपना जीवन बड़े आराम से जी रहें हैं, तब लिखने में मुझे अपना समय क्यों जाया करना चाहिए ? एक बिजनेसमैन सोचता है किस तरह कम समय ने अधिक से अधिक ग्राहकों के सम्पर्क में आकर वह अधिक मुनाफा कमा सके, एक डाक्टर सोचता है की कैसे कम समय में अधिक से अधिक मरीजों को निपटाकर अधिक पैसे इकट्ठे किये जा सकें | एक ट्यूटर सोचता है की कैसे समय का अधिकाधिक उपयोग कर विद्यार्थियों के अधिक से अधिक समूहों को पढ़ाने का प्रयोजन हो और अर्थोंमुख होने का कीर्तिमान बनाया जा सके | ऐसी सोच के आज के इस गतिमान प्रवाह में जहाँ अपने समय को अर्थ में बदलने की होड़ लगी हो तब एक लेखक के मन में यह विचार आना स्वाभाविक है कि मैं क्यों लिखती/लिखता हूँ ?

यह जानते हुए भी की लिखना अपने समय को अर्थ में बदल पाने की कला से कभी आबद्ध नहीं कर  सकता, उसके बावजूद भी अगर मैं लिखती हूँ तो इस लेखन का मेरे जीवन में गहरे निहितार्थ है | इस निहितार्थ में जीवन के उन सारे मूल्यों के नाभिनालबद्ध होने की गहरी आकांक्षा है जिसे मैं अपने जीवन के साथ-साथ दूसरों के जीवन के आस-पास देखना चाहती हूँ | लेखक-लेखिकाओं के ऊपर प्राय: यह आरोप लगाए जाते हैं कि वे यश की इच्छा के गम्भीर रोग से ग्रसित होते हैं और उनका लेखन इसी रोग का प्रतिफलन है | पर यह तथ्य सही प्रतीत नहीं होता, क्योकिं यश की दौड़ में आज का लेखक कहीं भी ठहरता हुआ नजर नही आता ! यह एक ऐसा दौर है जिसमे अमिताभ बच्चन, अनुष्का शर्मा, विराट कोहली सलमान खान, सोनम कपूर जैसे विचार शून्य सेलिब्रिटीज ने यश की लगभग समूची जगह को घेर सा लिया है | आज की यह दौर विचारशून्यता को पोषित करने का दौर है, जहाँ लेखक के लिए कोई जगह शेष नहीं है | इसके बावजूद मैं लिखती हूँ तो मेरा लिखना यशोगामी कैसे हो सकता है ? मेरे आस-पास क्या सब कुछ ठीक है ? जब देश-दुनिया की अधिकाँश आबादी ने अपने समूचे समय और जीवन को अर्थ उपार्जन और कामवासना की तृप्ति के लिए ही रख छोड़ा है ऐसे में भला सबकुछ कैसे ठीक हो सकता है ? मुझे यह भी मालूम है मेरे लिखने से सब कुछ ठीक नहीं हो सकता फिर भी मैं लिखती हूँ | इस लिखने में एक सूक्ष्म आकांक्षा है कि सबकुछ न सही, उसके रत्तीभर आकार का हिस्सा अगर ठीक हो सके तब मेरा लिखना सार्थक है | यह सोच मेरे दिमाग में आती-जाती है इसलिए भी मैं लिखती हूँ |

मेरा लिखना देश में किसानों की आत्महत्या को रोक नहीं सकता, मेरे लिखने से देश में हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध नहीं रुक जाएंगे !  मेरे लिखने से देश में पसरी अराजकता खत्म नहीं हो जाएगी ! इन सबके बावजूद अगर मैं लिखती हूँ तो यह चाहती हूँ कि मेरे भीतर पसरी हुई बैचेनी थोड़ी कम हो जाए | मैं इसलिए लिखती हूँ कि इन बुराइयों का विरोध कर सकूं | इन बुराइयों के विरोध में उपजा मेरा लेखन उन बीज की तरह है जिसमे किसी दिन पेड़ बनने की सम्भावना मुझे नजर आती है | इसलिए भी मैं लिखती हूँ |

मैं सिर्फ अपने लिए नहीं आपके लिए भी लिखती हूँ कि आप मेरे लिखे को कभी समय निकालकर पढ़ सकें और अपनी खोई हुई मनुष्यता की ओर लौटने की कोशिश कर सकें | अगर आपके लिए पढना संभव न भी हुआ तो मेरे लिखने से दुनिया को कोई नुकसान भी नहीं होनेवाला है | क्योंकि मैं कोई अपराधी तो हूँ नहीं और न लोगों के दिल दिमाग में डर पैदा करने वाली शख्स हूँ | मैं तो बस लिखनेवाली बस एक अदना सी कलमकार हूँ, आपके लिए जिसे लेखक मान लेने की मजबूरी भी नहीं है | किन्तु मेरे लिखे से फिर भी आप अराजक होने की छवि से डर जाते हैं, तो इसका अर्थ है की मनुष्यता के पक्ष में इस डर को बनाए रखने के लिए मेरा लिखना कितना महत्वपूर्ण है | अराजक लोगों के इस डर ने ही तो दुनिया भर में शब्द और विचारों की महत्ता को स्थापित किया है | इस स्थापना को मैं और प्रगाढ़ करना चाहती हूँ | मैं पूरी दुनिया में मनुष्यता को बचाए रखने की पक्षधर हूँ इसलिए भी मैं लिखती हूँ |

क्रमश:

     


  

बुधवार, 2 मई 2018

चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे आपकथा न बांचे कोई




      
     
 आज मन में एक अजीब सा द्वंद  चल रहा है | मन क्यों विचलित हो रहा है ? सब कुछ तो है, सब कुछ  ईश्वर की अनुकम्पा से जिन्दगी भी यथावत ठीक-ठाक चल रही है | फिर ये बेचैनी क्यों, ये उलझन क्यों ? कितना भी अपने आपको व्यस्त रखूं सुकून नहीं है ! न कक्षा में न छात्रों के साथ, न गृहकार्य में, और न ही अपना मन पसंद कार्य लेखन में ! ये क्या हो गया है मुझे ? बहुत जिम्मेदारियां हैं कंधों पर , थक चुकी हूँ इन जिम्मेदारियों का बोझ उठाकर | जी करता है हिमालय के कन्दराओं में जाकर कुछ दिन बैठूं, तपस्या करूं शांति की खोज करूँ उन बर्फीले हिमशैल मालाओं में शायद कहीं से मिल जाए !


 ये रक्त पाश ही तो हैं जो आप के अन्दर कितनी भी तिक्तता क्यों न हो किन्तु परिस्थितवश स्वत: ही आपको एक दूसरे की और खींच लेता हैं ! रक्तपाश मोहपाश ही तो है | मन चाहकर भी अलग-थलग नहीं हो पाता है परिस्थितियाँ आपको जोड़ देती है | किस नागपाश में जकड़ रही हूँ मैं ? कटुताओं का हालाहल पीकर नीलकंठ ही तो हो गई मैं !

    कुछ स्थितियां जीवन में ऐसी आती हैं जहाँ आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं | आप बस तमाशबीन होते हैं रेत के मानिंद मुट्ठी से सब कुछ फिसल जाता है | मन चीत्कार करता है, परिस्थितयों की गुलाम, मर्यादा के जंजीरों में जकड़ी असहाय और विवश सिवाय आंसू बहाने, और भाग्य के भरोसे बैठने के सिवा और कुछ भी नहीं कर सकती | यह भी उतना ही कटु सत्य है कि मैं भाग्यवादी नहीं कर्मवादी हूँ मेरे जीवन का मूल मन्त्र कर्म है | आंसू और भाग्य को मैं कमजोरों की निशानी मानती हूँ | वैचारिकता क्या मात्र औपचारिकता है ? मन को संयत कर रही हूँ, समझा रही हूँ की धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय | लेकिन मन है की शांत होने का नाम नही ले रहा | बड़े-बुजूर्ग ठीक ही कहते  हैं “जब आप के हाथ में कुछ भी नहीं है तो सब कुछ शांत और निर्विकार भाव से ईश्वर के हवाले कर दीजिये | हौसले बुलंद रखिए ;शायद यही सम्बल बने !

क्रमश:
किन रिश्तों की बात की जाए सब अपने ही तो है स्वार्थ और वैचारिकता की चारदीवारी ने एक सीमारेखा का निर्धारण कर दिया है | क्या इनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता ? अतिक्रमण करने पर शायद मैं निर्लज्ज ठहराई जाऊं | परिस्थितिवश विवश मन हाहाकार कर रहा है | किसको गलत कहूँ किसको सही फैसला नहीं कर पा रही हूँ | झूठ, फरेब, चाटुकारिता, हेराफेरी मुझे पसंद नहीं दूसरों से भी यही आस लगा बैठती हूँ हताश होती हूँ | यह दुनिया आभासी है, स्वार्थी है | अपने आपको छलते हैं कितना तकलीफ होता है ह्रदय कांच के मानिंद दरकता है फिर न जुटने के लिए | इस पीड़ा को वह क्या जाने जिनके पाँव कभी न फटे विंबाई |

समाज पुरुष प्रधान, परिवार पुरुष प्रधान तथा परिवार की महिलाओं में भी मर्दवादी मानसिकता ! ये मानसिकता हमेशा अन्याय ही तो कर बैठता है | अन्याय और दमन से ग्रसित एक और चेहरा | क्या लिखूं क्या छोडू ? रिश्तों का वटवृक्ष धराशाई होने के कगार पर ! भीष्मपितामह अपनी लक्ष्मणरेखा में | श्वेत वस्त्र को पाक-साफ करने में लगे | घड़ियाली आंसू के साथ पुन: पल्ला झाड़ वाली स्थिति !
मां कहती थी-“सच हारता नहीं झूठ के पाँव लम्बे नहीं होते “ लेकिन यहाँ पाँव की लम्बाई कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है |
क्रमशः