आज मन
में एक अजीब सा द्वंद चल रहा है | मन
क्यों विचलित हो रहा है ? सब कुछ तो है, सब कुछ ईश्वर की अनुकम्पा से जिन्दगी भी यथावत ठीक-ठाक
चल रही है | फिर ये बेचैनी क्यों, ये उलझन क्यों ? कितना भी अपने आपको व्यस्त रखूं
सुकून नहीं है ! न कक्षा में न छात्रों के साथ, न गृहकार्य में, और न ही अपना मन
पसंद कार्य लेखन में ! ये क्या हो गया है मुझे ? बहुत जिम्मेदारियां हैं कंधों पर ,
थक चुकी हूँ इन जिम्मेदारियों का बोझ उठाकर | जी करता है हिमालय के कन्दराओं में
जाकर कुछ दिन बैठूं, तपस्या करूं शांति की खोज करूँ उन बर्फीले हिमशैल मालाओं में
शायद कहीं से मिल जाए !
ये रक्त पाश ही तो हैं जो आप के अन्दर कितनी भी
तिक्तता क्यों न हो किन्तु परिस्थितवश स्वत: ही आपको एक दूसरे की और खींच लेता हैं
! रक्तपाश मोहपाश ही तो है | मन चाहकर भी अलग-थलग नहीं हो पाता है परिस्थितियाँ
आपको जोड़ देती है | किस नागपाश में जकड़ रही हूँ मैं ? कटुताओं का हालाहल पीकर
नीलकंठ ही तो हो गई मैं !
कुछ
स्थितियां जीवन में ऐसी आती हैं जहाँ आप चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं | आप बस
तमाशबीन होते हैं रेत के मानिंद मुट्ठी से सब कुछ फिसल जाता है | मन चीत्कार करता
है, परिस्थितयों की गुलाम, मर्यादा के जंजीरों में जकड़ी असहाय और विवश सिवाय आंसू
बहाने, और भाग्य के भरोसे बैठने के सिवा और कुछ भी नहीं कर सकती | यह भी उतना ही
कटु सत्य है कि मैं भाग्यवादी नहीं कर्मवादी हूँ मेरे जीवन का मूल मन्त्र कर्म है |
आंसू और भाग्य को मैं कमजोरों की निशानी मानती हूँ | वैचारिकता क्या मात्र
औपचारिकता है ? मन को संयत कर रही हूँ, समझा रही हूँ की धीरे-धीरे रे मना धीरे सब
कुछ होय | लेकिन मन है की शांत होने का नाम नही ले रहा | बड़े-बुजूर्ग ठीक ही कहते हैं “जब आप के हाथ में कुछ भी नहीं है तो सब
कुछ शांत और निर्विकार भाव से ईश्वर के हवाले कर दीजिये | हौसले बुलंद रखिए ;शायद
यही सम्बल बने !
क्रमश:
किन
रिश्तों की बात की जाए सब अपने ही तो है स्वार्थ और वैचारिकता की चारदीवारी ने एक
सीमारेखा का निर्धारण कर दिया है | क्या इनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता ?
अतिक्रमण करने पर शायद मैं निर्लज्ज ठहराई जाऊं | परिस्थितिवश विवश मन हाहाकार कर
रहा है | किसको गलत कहूँ किसको सही फैसला नहीं कर पा रही हूँ | झूठ, फरेब, चाटुकारिता,
हेराफेरी मुझे पसंद नहीं दूसरों से भी यही आस लगा बैठती हूँ हताश होती हूँ | यह
दुनिया आभासी है, स्वार्थी है | अपने आपको छलते हैं कितना तकलीफ होता है ह्रदय
कांच के मानिंद दरकता है फिर न जुटने के लिए | इस पीड़ा को वह क्या जाने जिनके पाँव
कभी न फटे विंबाई |
समाज
पुरुष प्रधान, परिवार पुरुष प्रधान तथा परिवार की महिलाओं में भी मर्दवादी
मानसिकता ! ये मानसिकता हमेशा अन्याय ही तो कर बैठता है | अन्याय और दमन से ग्रसित
एक और चेहरा | क्या लिखूं क्या छोडू ? रिश्तों का वटवृक्ष धराशाई होने के कगार पर !
भीष्मपितामह अपनी लक्ष्मणरेखा में | श्वेत वस्त्र को पाक-साफ करने में लगे |
घड़ियाली आंसू के साथ पुन: पल्ला झाड़ वाली स्थिति !
मां
कहती थी-“सच हारता नहीं झूठ के पाँव लम्बे नहीं होते “ लेकिन यहाँ पाँव की लम्बाई
कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है |
क्रमशः
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