शनिवार, 20 जनवरी 2018

शाश्वत प्रेम का आत्मसत्य “एक दीप सुगुणा के नाम”








मन के भावात्मक एवं रागात्मक अनुभूतियों की उपज कविता है | या यह  कहना उचित होगा की कविता ईश्वरीय प्रेरणा से प्रेरित संदेश है | इसलिए भावनाओं को आंदोलित करने की जो शक्ति कविता में है वह साहित्य के किसी अन्य विधा में नहीं है | लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कविता बौद्धिक हो गयी है फिर भी उसका सम्बन्ध मानव के रागात्मक वृत्तियों से है | कविता के चार तत्व माने गए हैं-भाव, कल्पना, बुद्धि और शैली | वहीं आचार्यों का मानना है कि ऐसा वाक्य जिसमे काव्य का गुण विद्यमान हो तथा इसका आधार कलात्मक कल्पना हो कविता कहलाती है |

   तेलुगु भाषी हिन्दी कवि डा. एम रंगय्याजी की रचना “एक दीप सुगुणा के नाम” में ये सभी गुण सहज रूप से विद्यमान है | कवि ने अपनी अनुभूतियों को जिस तरह से सार्वजनिक किया है, मानो यह अनुभूति उनकी अपनी नहीं उन सबकी है जिन्होंने इन परिस्थतियों को भोगा है | डा.रंगय्या ने अपनी इस कविता संग्रह के माध्यम से संयोग-वियोग का विस्तृत उल्लेख किया है | ऐसी परिस्थितियाँ तो हम सबके जीवन में आती हैं लेकिन कवि ह्रदय ही इसे शब्द का रूप दे सकता है |

     प्रस्तुत पुस्तक “एक दीप सुगुणा के नाम” कवि ने अपनी स्वर्गवासी पत्नी सुगुणा को समर्पित किया है | जब अपनी इन कविताओं को वह पुस्तक का रूप प्रदान कर रहे थे उस समय मैं पी.एच.डी. की शोध छात्रा थी | जीवन संगिनी प्राणघातक बीमारी की वजह से शनैः शनैः मृत्यु की ओर अग्रसर हो रही थी | बैचेनी मैं वह कभी-कभी हम लोगों के बीच आकर बैठ जाया करते थे | उनकी आँखों में हम  वह पीड़ा, दर्द, तड़प तथा जीवनसाथी का संग छुटने का भय स्पष्ट देखा करते थे | आखिरकार नियति के क्रूर चक्र के सामने किसी का बस नहीं चला सुगुणाजी कालकलवित हो गयी |
    संयोग-वियोग का ऐसा सहज-स्वाभाविक वर्णन पढ़कर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता संग्रह “जूही की कली” याद आती है | यहाँ यह कहना ठीक होगा की जूही की कली जहाँ एक अद्वितीय रचना है वहीं डा. रंगय्याजी की यह रचना दिन-प्रतिदिन की सामान्य गतिविधियों से प्रभावित है | बाल्यवस्था में मां का छाया सिर से उठ जाना तथा जीवन के उत्तरकाल में पत्नी वियोग की पीड़ा सचमुच असहनीय है | अगर जीवन जीना है तो पीड़ा को भुलना भी आवश्यक है कवि रंगय्या भी अपनी पीड़ा को काव्य के सार्थक पंक्तियों में अभिव्यक्त कर अपना जीवन जी रहें हैं | जीवन संगिनी की बातें ही पुरुष को सम्बलित करती हैं इन बातों से ही पुरुष जीवनरूपी संग्राम में सफल होता है  यथा-

“वे बातें हीं रही सदा जीवन का सम्बल |
उनसे ही पाया हर कठिनाई का हल ||”
पत्नी की याद में यदा-कदा अश्रु भी प्रवाह होने लगता है उन्हें –
कहाँ छिपा लूँ नीर नयन यह आ जाती है मुझको लाज |”
स्मृतियां तो अनंत होती हैं हम जीवन में जिसके साथ रहते हैं | समग्र जीवन में क्या-क्या घटित होता है यदि हम उनको एक एक करके सहेजना शुरू करें तो एक विशाल महाकाव्य बन जाएगा | डा. रंगय्या के साथ भी कुछ ऐसा ही है | पत्नी के साथ व्यतीत हर पल उनके मानस पटल पर छा जाता है |  स्मृतियों के अनंत पटल पर पत्नी से वियोग होने के उपरान्त भी वह संयोग की अवस्था में हीं जी रहें हैं –

“मगन उर कैसे करूँ मैं अर्चना
सुप्त मन कैसे संवारू कल्पना
दो हिचकियाँ स्वीकार कर लो
बस यही है मूक मेरी वन्दना |”

जानेवाला तो अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाता है केवल कल्पना ही शेष रह जाती है-

“कौन तुम्हारा दुःख-सुख का साथी होगा
किसके बल पर जीवनधारा पार करेंगे
मैंने इतना ही कहा तुम्हारी स्मृति से
सारे पतझड़ बन जायेंगे मधुमास |”

अपने अस्वस्थता के क्षणों में भी वह निरंतर पत्नी की परछाई को महसूस करते  हैं-

“बडबडाने लगता है बूढा आदमी
चुपके से आती है एक परछाई
पूरी देह चन्दन का लेप करती है
पर फिर भी कोई नहीं आता |”

पत्नी की राष्ट्रभाषा एवं मातृभाषा प्रेम को भी उन्होंने सहज दर्शाया है-

“कहा था तुमने हमसे जब
तेलुगू का हो हिन्दी अनुवाद,
चला उसी पथ पर मैं
मिला सुयश, कीर्ति-प्रसाद |

कवि अपनी स्मृतियों में इतना अधिक तल्लीन हैं की उनका पत्नी वियोग सुखद संयोग की कल्पनाओं में बीत जाता है परमधाम में पत्नी से जल्दी ही मिलने की कामना कर बैठते हैं –

अब तो तेरी याद लिए ,
जीता हूँ हर क्षण हर पल
..........................है
पूरा विश्वास मिलूँगा
बहुत जल्द आकर तुमसे
पता नहीं कब मिले निमत्रण
आने का उस दर से |”

इस कविता संग्रह को पढ़कर यह कहना सर्वथा उचित है की डा. रंगय्या  की पूरी कृति पत्नी के विभिन्न स्मृतियों का शब्द चित्र है | उठते बैठते, सोते जागते, चलते फिरते हर स्थिति में डा. रंगय्या पत्नी की स्मृति में खोये रहते हैं | उनके अपने विश्वास के अनुसार उनकी जीवन संगिनी सदा-सदा के लिए उनके संग है | जहाँ यह विश्वास हो वहां भला यह विरह वेदना कैसे प्रवेश कर सकती है | संयोग वियोग के हरपल को जीवंत बनानेवाली इस रचना के लिए कवि को अनेकानेक साधुवाद | प्रस्तुत रचना भाषा एवं भाव प्रधान है श्रेष्ठ है |  इसी विश्वास के साथ सुधी पाठक हर परिस्थितियों में इसे  पढ़कर अपने मन की बोझ को हल्का कर सकेंगें |   
      
                                          अर्पणा दीप्ति