बुधवार, 26 दिसंबर 2018

“तुम मिली......जीने को और क्या चाहिए”





था बिछोह दो दशकों का भारी,
विलग हो हुई अधूरी;
बस साँसे थी तन में ,
शक्तिहीन मन-प्राण |

थे कुछ शिकवे और शिकायत ,
उस अनंत सत्ता से ;
बनी फरियादी किया फरियाद ,
याद किया तुम्हें जब-जब ,
नयन-नीर-सजल
अधीर मन प्राण |

हुई आज पुनः सम्बल
पाकर तुमको-
एक क्षण सहसा चौंकी !
कहीं दिवा स्वप्न तो नहीं !!

बातें कर तुमसे बहुत रोई ,
होती जो तुम साथ मेरे ;
मिलकर हम देते जग को नई दिशा,
एक नया क्षितिज एक नया उजियारा ||

हाँ ! वो तुम्हीं तो थी
करती थीं मुझमे नव उर्जा का संचार ;
विलग हो हुई स्वप्न विहीन आँखे |


थे पथ दिशाहीन;
था संघर्षरत तन,
पथ पर थे अंगारे ,
झुलस रहा था मन-प्राण |


काश होती जो तुम ,
पथ के शूल बनते फूल ,
अंगारे देती शीतलता |

उहापोह में नन्हा अंकुर आया भीतर ;
हुआ नाभिनाल आबद्ध ,
हुई ममत्व से सम्बलित |

क्या भुलूँ क्या याद करूं ?
कहाँ-कहाँ से गुजर गई ?
अस्तित्व के जद्दोजहद में,
वय के चार दशक बीत चुके हैं,
पांचवे की दहलीज पर हूँ खड़ी |

शब्द तुम्हारे मैंने सहेजे
बना सम्बल जब-जब टूटी मैं;
अश्रुपूरित नयन पढ़ती थी संदेशा ,
गिरती थी, बिखरती थी, बढ़ती थी आगे ;
बस है यही कहानी ||

तुम नहीं बदली बिल्कुल;
आज भी हो वैसी हीं,
विधि के ये एहसान नहीं कम;
पाया तुमको फिर से
आओ बैठे कुछ क्षण;
मैं बोलूं तुम सुनना ,
दो दशकों का दूँ ;
तुमको लेखा-जोखा,
तुम कुछ अपनी कह लेना;
मैं सुनाऊं सबसे ज्यादा ||


तुम्हारी चंद पंक्तियाँ पुन: तुमको-
“जब याद आए मेरी मिलने की दुआ करना|”
मेरी दुआ कुबूल हुई |
तुम्हारी मानस की चौपाई-
“जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू / सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ||”
और तुम मुझे मिली |
“तुमने कहा था ये बातें सिर्फ दोस्ती के सम्बन्ध में नहीं सपनों के सम्बन्ध में भी लागू होती है , सपने देखना कभी नहीं छोड़ना |”
दिनांक -4-6-1998 (महरानी रामेश्वरी महिला महाविद्यालय छात्रावास दरभंगा)
अर्पणा दीप्ति





गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

प्यार अगर इंसान की शक्ल लेता तो उसका चेहरा अमृता प्रीतम जैसा होता



अमृता प्रीतम पर कुछ लिखना जैसे आग को शब्द देना, हवा को छुकर आना चांदनी को अपनी हथेलियों के बीच बांध लेना | प्रेम में डूबी यह स्त्री आजाद थी और खुद्दार भी उतनी ही | हालांकि प्रेम और आजादी दो विरोधाभासी शब्द हैं |प्यार जहाँ किसी को सिरे से बांधता है तो  वहीं आजादी हर बंधन को तोड़कर खुली हवा में  जीने और सांस लेने का नाम है | लेकिन अमृता ने प्यार के साथ आजादी को जोड़कर प्यार के रंग को थोड़ा और चटख और व्यापक बना दिया | यह खुद को आजाद करना ही था की सिर से पाँव तक साहिर के प्रेम में डूबे होने, तथा इस प्रेम के कारण अपनी बंधी-बंधाई गृहस्थी छोड़ने के बावजूद जब अख़बार में उन्हें यह खबर पढ़ने को मिलती है कि साहिर को उनकी नई मुहब्बत मिल गई , फोन की तरफ बढ़े उनके हाथ पीछे खिंच जाते हैं | अमृता न रोती है न आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत करती है | यहाँ प्रेम के साथ खुद्दारी की बात जो ठहरी | अपनी जिन्दगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजर जाती हैं| अमृता को तब नर्वस ब्रेकडाउन भी हुआ , जिससे वे बमुश्किल उबरी थीं| उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखती हैं जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविता उन्होंने इसी दौर में लिखीं |

“रसीदी टिकट” की भूमिका में अमृता लिखती हैं –‘मेरी सारी रचनाएँ,क्या कविता क्या कहानी क्या उपन्यास सब एक नाजायज बच्चे की तरह हैं | मेरी दुनियां के हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुई | एक नाजायज बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और उन्होंने सारी उम्र साहित्यक समाज के माथे के बल भुगते हैं|’

अपनी रचनाओं का यह परिचय न सिर्फ अमृता के विद्रोही तेवर को बताता है, बल्कि साहित्यक समाज के लिए उनके विक्षोभ और दुःख को भी दर्शाता है| हालांकि यह सच अमृता के हिस्से का सच होते हुए भी कुछ मायने में अंशत: सच है |यह सच है कि अपनी बगावती तेवर ने उनके हिस्से में हमेशा मुश्किलों को डाला |

यूँ ही नहीं एक दौर के पढी-लिखी लडकियों के सिरहाने अमृता की “रसीदी टिकट” हुआ करती थी | बल्कि उनके जीने-रहने के तौर तरीके भी कापी किए जाने लगे | अमृता आजाद ख्याल इन लड़कियों की रोल माडल रहीं | सबसे ख़ास बात यह कि इनमे से ज्यादातर लड़कियों के लिए उनके क्षेत्र और भाषा की लेखिका नहीं थीं | भाषा की दीवार से परे अपने शब्दों के पंख को उन्होंने खुला आकाश दे दिया था | अमृता का यही आकर्षण उन्हें ख़ास बनाता है | प्रेम और आजादी का चटख रंग उन्हें इमरोज में मिला | इस बात का प्रमाण अमृता के एक पत्र में मिलता है जो उन्होंने भारत के  स्वतंत्रता दिवस के दिन किसी अन्य देश में लिखा था | वे लिखती हैं –“इमुवा,अगर कोई इंसान किसी की स्वतंत्रता दिवस हो सकता है तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो......”| यह प्यार के सदियों से चले आ रहे बंधे-बंधाए दायरे को विस्तृत करना था | इसमें अमृता से रत्ती भर भी कम हाथ इमरोज का न था |

प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है | पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता,शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं| खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है | किसी ऐसी स्त्री से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना जो आपकी नहीं है | इमरोज यह जानते थे और खूब जानते थे | उस आधे-अधूरे को ही दिल से कबूलना और पूरा मान लेना ठीक वैसे ही जिसे दुनियादारी की भाषा में प्रेम अँधा होना कहा जाता है |

अमृता अपने और इमरोज के बीच के उम्र के सात वर्ष के अंतराल को समझती थीं | अपनी एक कविता में वे कहती हैं- “अजनबी तुम मुझे जिन्दगी की शाम में क्यों मिले ?/ मिलना था तो दोपहर में मिलते |” जब इमरोज ने अमृता के साथ रहने का निर्णय लिया अमृता ने  इमरोज से कहा- ‘एक बार तुम पुरी दुनिया घूम आओ, फिर भी अगर तुम मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं .....मैं तुम्हें यहीं इन्तजार करती मिलूंगी|’ इसके जबाव में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा, ‘हो गया अब तो .....’ इमरोज के लिए अमृता के आसपास ही पूरी दुनिया थी | अमृता बचपन से बेचेहरा देखे जाने वाले जिस पुरुष की खोज में पुरी उम्र भटकती रही, वह शक्ल इमरोज के सिवा किसी और का हो ही नहीं सकता था | इस दुनिया से जाते-जाते अमृता इस सच को समझ चुकी थी, इसलिए उनका अंतिम नज्म “मैं तुम्हें फिर मिलूंगी” इमरोज के नाम थी केवल इमरोज के लिए |

साहिर वह शख्श नहीं थे | उतनी हिम्मत नहीं थी उनके दिल में या फिर दुसरे शब्दों में कहें तो प्यार | प्यार हमें हमेशा हमें हिम्मत की उँगलियाँ पकड़कर चलना सिखाता है | अगर लोग यह कहते हैं कि अमृता का प्यार एक तरफा था तो यह गफलत वाली बात भी नहीं | साहिर के लिए यह प्यार एक मुकाम जैसा था, तो अमृताके लिए उनकी पूरी जिन्दगी की रसद और उसकी मंजिल के जैसा | यह प्यार-प्यार के बीच का फर्क था | दो दृष्टियों और जीवनशैलियों या फिर कह लें तो दो व्यक्तित्व के बीच का फर्क भी | कुछ लोग इस प्रेम कहानी का खलनायक साहिर की माँ को मानते हैं, कुछ लोग अमृता के पिता और पति को | कुछ लोगों के लिए यह दीवार मजहब की थी | अमृता की माने तो खलनायक का वह काम उन दोनों की चुप्पी और उनके लिखने के भाषाओं के बीच उस अंतर ने किया | हालांकि यह तर्क सम्मत नहीं जान पड़ता | यह सब जानते हैं कि अमृता पंजाबी में लिखा करती थीं और साहिर उर्दू में हालांकि साहिर की मातृभाषा पंजाबी थी |

कुछ भी कह लें लेकिन अमृता की आत्मकथा को पढ़ने से यह साफ पता चलता है कि कमजोर कड़ी वे नहीं थीं | अपनी जिन्दगी और अपने प्यार से जुड़े अनुभवों को गीतों में ढालने में माहिर साहिर ने तो बड़ी सादगी से यह लिख दिया कि-“भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है;-‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों |’ पर यह अजनबी बन जाना अमृता के लिए कभी आसान नहीं रहा |

साहिर के लिए प्रेम बहुत आगे चलकर सामाजिक इन्कलाब की राह बनता है;वहीं अमृता के लिए उनकी मोहब्बत ही उनका इन्कलाब रही | छोटी-सी उम्र में तय की गई मंगनी का ब्याह में बदलना | फिर दो बच्चे होने के बाद उस ब्याह से, उस अकहे प्रेम के लिए निकल पड़ना कोई आसान तो नहीं रहा होगा | पर कोई आसान राह अमृता ने चुनी ही नहीं | वह चाहे बसी-बसायी गृहस्थी से निकल आना हो, या फिर अपनी पूरी जिन्दगी ब्याह के बगैर इमरोज के साथ बिता देना |

लिव-इन की जिस परिपाटी को आज हम फलता-फूलता देख रहें हैं, अमृता ने उसकी नींव 1966 में ही रख दी थी; पर इससे उनके रिश्ते पर कभी न कोई फर्क आना था  न आया | और न ही उनकी जिन्दगी पर इसका कभी कोई असर रहा | साहिर और इमरोज से अपने रिश्ते का बयान करते हुए अमृता कहतीं हैं-“साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत |” इमरोज से बेपनाह प्यार करने के बावजूद भी वे अगर साहिर से अपने प्यार को नहीं भूल सकीं तो बस इसलिए कि स्त्रियाँ अपने हिस्से के सुख-दुःख को कभी विदा नहीं करती | एक कारण यह भी हो सकता है कि अपने लाख बगाबती तेवर के बावजूद वे अपनी पहली शादी से मिले पति के नाम प्रीतम को जिन्दगी भर साथ लेकर चलती रहीं |

अगर प्यार कोई शब्द है तो अमृता ने उसे अपनी कलम की स्याही में बसा लिया था | अगर वह कोई स्वर है तो अमृता के जीवन का स्थायी सुर रहा | जिस तरह अमृता ने इमरोज के लिए यह कहा कि अगर स्वाधीनता दिवस किसी इंसान की शक्ल ले सकता है, तो वह तुम हो | ठीक उसी तहर प्रेम अगर किसी इंसान की शक्ल में आए तो उसकी शक्ल अमृता जैसी होगी |
जिन्दगी की कहानी बस इतनी सी है ......एक रसीदी टिकट
(Revenue stamp) के पीछे भी लिखो तो काफी है ......!  
    
                                                 अर्पणा दीप्ति 
              


मंगलवार, 19 जून 2018

गुमनाम लड़की के डायरी के कुछ और इन्द्रराज –भाग-4



हमारे समय में प्यार एक जादुई यथार्थवाद है |
कितनी रातों की हवाओं में उसके आंसुओं के नमी भरती रही| खिड़कियों से रिसकर बाहर आती उसकी सिसकियों ने कितने हरे पत्तों का ह्रदय विदीर्ण किए | तब कहीं जाकर वह एक बेरहम दुनियादार, गावदी कर्तव्यनिष्ठ स्त्री बन सकी |



एक स्वपनहीन समय में भी कुछ लोग स्वप्न देखते पाए गए | उन्हें दूर किसी दंडद्वीप पर निर्वासित कर दिया गया | वहां से रोज वे लोग अपने सपने को डोंगियों में रखकर अपने देश की दिशा में तैराते रहते | कुछ सपने रास्ते में तूफान के शिकार होते रहे | पर जो गन्तव्य तक पहुँचते रहे, वे खतरनाक ढंग से पूरे देश में फैलते रहे | जोखिम से बचने वाले लोगों ने सपने देखना तो दूर,उनके बारे में सोचना तक छोड़ दिया | वे तमाम सुख-संतोष-आनन्द देनेवाली चीजें, प्रतिष्ठा, ख्याति आदि के बीच जीते रहे | उनके पास खोने के लिए बहुत सारी चीजें थीं पर पाने को कुछ भी नहीं था क्योंकि वे अपने सपने काफी पहले खो चुके थे, और धीरे-धीरे मनुष्यता भी |
प्यार-
मैं सागर-तट पर लहरों के एकदम निकट, ताड़ वृक्ष के खोखल से एक डोंगी बनाती हूँ, उसके मुहं पर एक कड़ी ठोकती हूँ, उसमें रस्सी बांधती हूँ और फिर डोंगी को खींचकर लहरों से दूर ले जाती हूँ | डोंगी रेत पर गहरा निशान छोड़ जाती है | फिर मैं पूरनमासी तक इन्तजार करती हूँ | तब समुद्र चिंघाड़ता हुआ आता है | और रेत पर डोंगी के बनाए हुए रास्ते से  होकर उसके पास आ  जता है | फिर आश्चर्यजनक तरीके से अपने सीमान्तों को आगे बढ़ाकर वहीं रह जाता है | अगली अमावस पर फिर मैं डोंगी को रेत पर खींचकर पीछे ले जाती हूँ | फिर पूरनमासी की रात समुद्र डोंगी की बनाई राह से उसतक वापस आ पहुंचता है | इसतरह यह सिलसिला चलता रहता है | इस तरह समुद्र एक दिन पास के जंगल तक पहुँच जाएगा, पेड़ों और लताओं के जड़ तक | उस दिन मैं अपनी डोंगी लेकर समुद्र में निकल पडूँगी और अपनी मृत्यु की और बढती चली जाउंगी |



गुमनाम लड़की के डायरी में दर्ज कुछ और नोट्स और इम्प्रेसंश


-अल्बम जिन्दगी का सही पता नहीं बताते |
-डायरी इतिहास नहीं होती| उसमें सबकुछ वस्तुगत नहीं होता |
-जो सपने अपनी मौत मरते है, उनकी लाशें नहीं मिलती, अपनी मौत मरनेवाले परिंदों की तरह |
-खूबसुरती में यकीन करने के लिए चीजों को खुबसूरत बनाने का हुनर आना चाहिए |
-ताबूतसाज के दूकान में एक पर एक कई ताबूत रखे थे | वे किसी बहुमंजिली इमारत जैसे लग रहा थे  |
-रोमांसवाद था मार्क्सवाद का पूर्वज | एक बार मैं पूर्वजों को खोजने अतीत में चली गई | जहाँ सुंदर शिलालेखों वाले कब्रों से भरा एक कब्रिस्तान था | बड़ी मुश्किल से वहां से निकलकर वापस आना हुआ |
-मैं तुच्छता से भरी अंधेरी दुनिया से आई हूँ | इसलिय तुच्छता से सिर्फ नफरत ही नहीं करती, उसके बारे में सोचती भी हूँ |
-दूसरों के बनाए पुल से नदी पार करने के बजाए मैं आदिम औजारों से अपनी डोंगी खुद बनाने की कोशिश करती रही और तरह-तरह से लांछित और कलंकित होती रही ,धिक्कारी और फटकारी जाती रही, उपहास का पात्र बनती रही | पुरुषों ने शराफत की हिंसा का सहारा लिया| पराजित स्त्रियों ने भीषण इर्ष्या की |



-कई बुद्धिजीवी मिले , उन्होंने कई दार्शनिक बातें की, कविता के बारे में कई अच्छी बातें की और कई बार शालीन हंसी हंसे | उनकी हंसी कांच के गिलास में भरे पानी में पड़े नकली बत्तीसी जैसी थी | मेरा ख्याल है, ये बुद्धजीवी रात को अपने गुप्त अड्डे पर लौटते हैं और जीवितों का चोला उतारकर प्रेतलोक में चले जाते हैं |
-पुरुष जब पौरुष की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करता है, वह स्त्री को बेवफाई के लिए उकसाता है |
-बुर्जुआ समाज में विशिष्ट व्यक्ति प्रतिशोधी, आत्मग्रस्त, और हुकुमती जहनियत के होते हैं | पराजय या पीछे छुटना उन्हें असहनीय होता है | शीर्ष तक पहुचने के लिए वे कुछ भी, कोई अमानवीय से अमानवीय कृत तक करने को तैयार रहते हैं |
-उस अनजान शहर में न जाने कितने वर्षों तक भटकती रही | जब वापस लौटने का घड़ी आया तो लाख खोजने पर भी वह अमानती समानघर नहीं मिला जहाँ अपनी सारी चीजें रखकर मैं उस शहर की सडकों पर निकल पड़ी थी | मैं उस शहर से वापस आ गई थी लेकिन मेरी भुत सारी चीजें वहीं छुट गई थी | चींजे शायद इन्तजार नहीं करती, लेकिन उनसे जुड़ी आपकी ढेरों यादें हो तो तो जिन्दगी भर उनकी यादें आती ही रहती हैं |
क्रमश:
        

शनिवार, 16 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी में विश्व साहित्य से प्रेरित एक और इंदराज भाग-3



मेरे पास एक करामाती कोट है जिसे पहनकर मैं लोगों के नजर से ओझल हो जाती हूँ  और महान बनने का मुगालता पालनेवाले आत्माओं की तस्वीरें नागिन की तरह अपनी आँखों के कैमरे में कैद करती रहती हूँ | मेरे पास जादुई जूतियों की एक जोड़ी है जिसे पहनकर मैं मनहुस पाखंडियों और कूपमंडूकों के घेरे से पवन वेग से उड़कर भाग निकलती हूँ | मेरे पास सपनों और कविताओं की एक जादुई छाता है जो मुझे उदासी और एकाकीपन की ठंढी बारिश से बचाता है |
  मेरे पास अपने दुखों और हठों के कवच-कुंडल है जो मेरी आत्मा को क्षुद्रता भरे जीवन और कुरूप मृत्यु से बचाता है |
    मैं पंखोंवाले जिस गर्वीले घोड़े की सवारी करती हूँ वह मुझे विजय तक तो शायद न ले जाए, लेकिन वीरोचित पराजय तक शायद अवश्य ले जाएगा, या फिर हो सकता है की फिर उदात्त काव्यात्मक मृत्यु तक |
    “बूढ़े आदमी ने शिकायतना अंदाज में कहा हमारे जमाने में ..........|”
युवा आदमी ने मेज पर मुक्का ठोककर बूढ़े आदमी को अवहेलनापूर्ण निगाहों से देखते हुए आत्मविश्वास के साथ कहा- “हमारे जमाने में .......|”
बूढी स्त्री ने दोनों को उचटती निगाहों से देखा, फिर बेटी को शंकालू निगाहों से देखा और कुछ इर्ष्या और कुछ अफसोस और कुछ वर्जनाओं के स्वर में बोली “हमारे जमाने में ........|”
युवा स्त्री कुछ सोचती हुई कुछ ठिठकती हुई कुछ हिम्मत बांधती हुई जैसे कुछ पूछती हुई सी दूर क्षितिज की और देखती हुई बोली “हमारे जमाने में .........|”
क्रमश:

बुधवार, 13 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी में एक रहस्य रोमांच भरी जादुई कहानी – भाग 2




अर्पणा दीप्ति 

(गुमनाम लड़की की डायरी जो मुझे आर.टी.सी बस में मिली थी उसमे सबसे लम्बा इंद्रजाल वाली यह कहानी है | कहानी क्या है ? कहानीनुमा कुछ है ! पर जो भी है बहुत ही दिलचस्प है | डायरी पढने से यह पता चलता है कि डायरी लिखने वाली सिद्धहस्त लेखिका तो नहीं है लेकिन उसने विश्व साहित्य के लेखकों गोगोल से लेकर मार्खेज और लारा इस्कीवेल आदि की लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवादी कहानियां पढ़ती रही है और मुक्तिबोध को भी उसने पढ़ा है | यह उसकी डायरी से पता चल जाता है भाषा में कच्चापन है इसके बावजूद यह कहानीनुमा चीज काफी दिलचस्प है | भाषा में कुछ सुधार कर मैं इसलिए इसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ |)

एक भूतबंगले में कैद मैंने उम्र का एक बड़ा हिस्सा गुजार दिया | फिर जब तमाम सुरंगों से गुजरकर, खिड़कियों से कूदकर, चारदीवारियों में सेंध लगाकर मैं बाहर आयी तो बरसों बाद पाया कि वह एक बड़ा भूत बंगला था, जिसमे तमाम सुरंगे, खुली खिड़कियाँ और चारदीवारी के कमजोर हिस्से मेरे लिए ही छोड़ दिए गये थे | फिर उसी तरह के जतन  करके हिकमत लगाकर मैं जब उस भूत बंगले से बाहर आई तो फिर पता चला कि वह एक और बड़े भूत बंगले के बीच का खुला आँगन था जिसमें वह भूत बंगला था जिसके भीतर सबसे छोटा वाला भूत बंगला था |

    इस तरह सात बार हुआ | हर बार एक छोटे भूत बंगले से बाहर निकलकर खुद को मैं एक बड़े भूत बंगले में पाती रही | फिर मुझे एक आदमी मिला जो भेष बदलकर बंगले की पहरेदारी में शामिल था | वह कुछ अलग था | उसकी आँखों में सहानुभूति और सरोकार के रंग थे | उसने मुझे भूत बंगले की जादू से मुक्त होने की तरकीब बताई और एक दिन मैं उसी तरकीब पर अमल करके वाकई भूत बंगले से बाहर आयी तो बाहर रेगिस्तान में एक ऊंट लिए वही आदमी मुझे इन्तजार में करता मिला | उसने मुझे ऊंट पर बिठाया और पहले तपता  रेगिस्तान, फिर एक उफनती नदी, फिर एक खतरनाक दलदली इलाका, फिर एक बीहड़ जंगल और फिर एक दुर्गम पठार पार करके हम एक इंसानी बस्ती में पहुंचे |  वहां सडकों पर चहल-पहल थी, जगह-जगह उत्सव थे, मेले थे, सभा संगोष्ठियाँ थी; खुबसूरत बाग़ और पार्क थे | मैं उस जीवन में रम गई | लोगों की जिन्दगी की खुशहाली और खुबसूरती में घुलती-मिलती चली गई | मेरे हमदर्द की आँखों का रंग सहानुभूति और सरोकार से बढ़कर दोस्ती का हो गया और फिर न जाने कब उसमे प्यार के रंगीन डोरे तैरने लगे | पर अभी मैं आजादी की अभ्यस्त नहीं हुई थी इसलिए मैं और इन्तजार करना चाहती थी | इस जीवन के हर रंग को जानना चाहती थी और उसे रचने में भी भागीदार बनना चाहती थी | मेरा हमदर्द अक्सर आता था और मुझे उस खुबसूरत बस्ती की खुबसूरत जगहों पर घुमाने ले जाता था | वह रोज अलग-अलग ढंग के पोशाक पहनकर आता था | रोज उसकी अलग-अलग काबिलियत और हुनर के बारे में इतना जानने को मिलता था कि वह कई बार एक एक रहस्य सा लगने लगता था |

    एक दिन हमलोग बस्ती से बाहर एक शांत झील के किनारे एक कुंज की छाया में बैठे थे | शाम ढल चुकी थी | मेरे हमदर्द मुझ से कुछ बात करते हुए मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया और सहलाने लगा | अचानक मैंने कुछ अप्रिय खुरदरा महसूस किया और चौंककर देखने पर पाया कि उसकी अंगुलियाँ और पंजे बाघ के पंजे में तब्दील होते जा रहे हैं, उसकी पोशाक धारीदार खाल बनती जा रही है, चेहरे पर घने बाल निकलते जा रहे हैं और गले से अजीब सी घुरघुराहट निकल रही है | मैं एकदम डर गई | हड़बड़ा कर उठी और हाथ छुड़ाकर बस्ती की ओर  जाने के लिए मुड़ी | लेकिन जहाँ बस्ती था वहां धुल, धुआं और सन्नाटे के सिवा और कुछ भी नहीं था | बदहवास मैं मुड़ी और किसी एक दिशा में भागती चली गई | वह बाघ मेरा पीछा करता रहा; दौड़ते हुए नहीं बस इत्मीनान भरी चाल चलते हुए |

    कई बरस वीरानियों में गुजारने के बाद मैं फिर इंसानी बस्ती तक पहुंच गई | पीछा करता बाघ बस्ती के सीमा पर रुका और फिर वापस लौट गया | ये अलग किस्म की बस्तियां थी | यहाँ सभी लोग तमाम कामों में व्यस्त थे | वे राह चलते लुटेरे गिरोहों के हमले से बस्ती के हिफाजत का उपाय करते थे | वे दुःख शोक और उत्सव साथ में मनाते थे |

   कभी-कभी आपस में बुरी तरह से लड़ते भी थे | इन्हीं बस्तियों में से एक में मैंने अपना पड़ाव डाला | बस्ती के किसी व्यक्ति ने मेरी विशेष मदद करने की कोशिश नहीं की | जरूरत पड़ने पर कोई मदद करने को आ जाता था | कुल मिलाकर सभी किसी न किसी रूप में मददगार होते थे | बस्ती के लोग उस रहस्यमयी बाघ के बारे में जानते थे और भूत बंगले के भीतर भूत बंगले के तिलिस्म को भी जानते थे | धीर-धीरे मैं भी उन्हीं में से एक बनती जा रही थी | लेकिन फिर बस्ती के ठहरे-ठहरे आत्मतुष्ट जीवन से मुझे उब होने लगी | यहाँ लोग सामूहिकता से अधिक निर्भरता के चलते व्यक्तिक विशिष्टता खोकर सपाट चेहरे वाले लोग बन गए थे | कुल मिलाकर वे अच्छे लोग थे पर आसन्न समस्याओं और तात्कालिक हितों से आगे कुछ सोचने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी | एक ठहरे हुए लिसलिसे-चिपचिपे रागात्मक परिवेश में जीते चले जाने से आगे वे कुछ सोचते नहीं थे | भूत बंगला और बाघ के रहस्य को पुरी तरह से समझने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी | उनके लिए यह काफी था की वे उस तिलिस्म के बाहर थे | इसलिए मैं उस बस्ती के अपने ठिकाने से चल पडी और बस्ती दर बस्ती सफर जारी रखते हुए नमकसारों, खदानों, खरादों, भटियारखानों और सरायों से गुजरती रही इस दौरान मेरा परिचय ऐसे लोगों से हुआ जो किसी बस्ती में नहीं रहते थे स्थायी तौर पर | वे खानाबदोश लोग थे जो सड़क, खदान, भट्टी, नमकसार......जहां कहीं भी काम मिलता था करते थे, वहीं ठीहा जमाकर रहते थे और काम खत्म होने पर अगले काम की तलाश में आगे की ओर चल देते थे | कई बार मैं ऐसे घुमंतू कारवाँ में शामिल रही और कई बार अकेले ही अपना सफर जारी रखा|

    एक दिन थकान से चूर मैं एक सराय में पहुंची और पहुँचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई | जब नींद टूटी तो शाम का समय था मुझे ताज्जुब हुआ | सोई तो मैं रात को थी , कमरे से बाहर आने पर मैंने पाया की यह तो वही भूत बंगले का एक कमरा है जहाँ से भागने के बाद मेरे लम्बे सफर की शुरुआत हुई थी | बदहवास मैं बगल के कमरे में रहनेवाली एक बूढी औरत के पास गई | उसे अपने बरसों की यात्रा के बारे में बताया और फिर पूछा कि मैं यहाँ कैसे पहुँची ? बूढी स्त्री ने अपनी मिचीमिची आंखों से मुझे देखा और फुसफुसा कर कहा यह बात तुम दुबारा फिर कभी मत करना | तुम परसों से सो रही हो और अब बस तुम्हारे ऊपर निगाह रखी जाने लगी है | तुम्हारी दादी इसी तरह सोती थी और उन दिनों की लम्बी यात्रा पर निकल जाती थी जो कभी होता नहीं था | भविष्य के अपने यात्रा के किस्सों को जो भी मिलता था उसे वह सुनाती रहती थी | धीरे-धीरे उसके वे किस्से पूरे भूत बंगले में फैल गए फिर काफी तूफान आया | चीजें काफी उलट-पलट गई | हालात पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया गया | तुम्हारी दादी को फिर जंजीरों से जकड़ कर तहखाने में डाल दिया गया और दरवाजे पर एक बड़ा सा ताला डाल दिया गया | कुछ बरस बीतने के बाद फिर ऐसा होने लगा कि ताला अपने-आप नीचे खुलकर गिर जाया करता था फिर वहां दूसरा नया मजबूत ताला लगा दिया जाता था | उन दिनों सभी  पहरेदार भी काफी परेशान थे | हो यह रहा था की ताला हरेक दो दिन पर अपने-आप टूटकर गिर जाता था | इसलिए कह रही हूँ कि ‘तुम अपना सपना याद रखना हर किसी के सामने बयान मत करना |’

     “तुमने मेरी दादी को देखा था ?” मैंने धीमे स्वर में पूछा ? बूढी स्त्री कुछ नहीं बोली उसने रहस्य और प्यार के साथ मुझे देखा और फिर मुस्कुराने लगी |

क्रमशः                


मंगलवार, 12 जून 2018

गुमनाम लड़की की डायरी भाग-1


अकेली स्त्री अगर किसी पर भरोसा करे तो उसे सहज उपलब्ध मान लिया जाता है |


बात 2012 की है,रात के दस बजे मैं नामपल्ली पब्लिक गार्डेन के इंदिरा भवन से विद्यालय के वार्षिकोत्सव समारोह से अपने घर चिन्तल  आर.टी.सी बस से वापस लौट रही थी | बस में यात्री बहुत कम थे ; मैं स्त्रियों के लिए आरक्षित सीट पर बैठी थी हाथ में प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या तक’ थी | शब्द महीन थे धुंधली रोशनी के वजह से पढ़ तो नहीं पा रही थी , बस यूँ हीं किताब के पन्ने पलट रही थी | कुछ देर बाद आगे सीट पर बैठी लड़की पर मेरा ध्यान गया वह बीच-बीच में लगातार मेरी ओर देख रही थी | अमीरपेट आते आते बस लगभग खाली गिनती के चार यात्री एवं कंडक्टर और ड्राइवर रह गये थे यानि की कुल मिलकर छह | इसी क्रम में वो लड़की मेरे बगल में आकर बैठ गई, उसने मुझसे परिचय किया कुछ औपचारिक बाते हुई; उसने बताया की वह मध्यप्रदेश की रहने वाली है यहाँ फार्मा कम्पनी में कार्यरत है | साथ ही उसने बताया की वह प्रभा खेतान की आत्मकथा पढ़ चुकी है | उसने कहा की उसे हिन्दी साहित्य में गहरी रूचि है क्योंकि उसका पारिवारिक माहौल साहित्य का है | बालानगर में वह लड़की उतर गई | कुछ देर बाद मैंने देखा की उसकी बादामी रंग की डायरी सीट पर छुट गई | डायरी को मैंने उठाकर उल्टा-पलटा लेकिन कहीं कोई नाम-पता या फोन नम्बर दर्ज नहीं था हाँ अलग-अलग पन्नों में कुछ चंद लाइन की प्रविष्टियाँ जरुर दर्ज थी |
पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा की वह अपनी डायरी जानबूझकर छोड़कर चली गई थी | बातचीत के दौरान मैंने उसे बताया की मैं ‘स्त्री विमर्श’ पर शोध कर रही हूँ इससे सम्बन्धित मेरे आलेख कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं | इस घटना को छह साल बीत गये | मैं उस लड़की और डायरी को भूल भी गई | पिछले महीने पुस्तक की सफाई के दौरान वह डायरी पुन: मेरे हाथ लगी और मैंने यह तय किया की गुमनाम लड़की की इस डायरी के लिखे कुछ अंश को मैं सार्वजनिक करूं :-
·       अकेली स्त्री अगर किसी पर भरोसा करे तो उसे सहज उपलब्ध मान लिया जाता है |
·       नसीहते भी गुलाम और आज्ञाकारी बनाने का उपकरण है |
·       हमदर्दी भी एक षड्यंत्र हो सकता है , या बहेलिये का बिछाया जाल |
·       संरक्षण दिमागी तौर पर गुलाम बनाने का हथकंडा हो सकता है |
·       स्त्री निर्व्याज या नि:स्वार्थ सहायता की अपेक्षा नहीं कर सकती है |
·       बंद समाजो में स्त्री-पुरुष की सामान्य स्वस्थ मैत्री ज्यादातर एक स्वस्थ मिथक होती है;-बहुत दूर की कौड़ी |
·       जो कुछ सिखाता है वह बदले में कुछ चाहता है | जो सिखाने से इनकार करता है वह यह सोचकर कि बदले में क्या मिलेगा ?
·       जिन्होंने उससे मित्रता की उन्होंने भी उसे ‘दो कौड़ी’ का समझा, जो उसका मित्र नहीं बन सके वह उसे ‘दो कौड़ी’ का बताते रहे |
·       जिन्होंने उसे प्यार किया, उन्होंने उसे कुचलकर विजय का आनन्द लिया; - जो उसका प्यार न पा सके उन्होंने उसे कुचलकर प्रतिशोध का आनंद लिया |
·       उनमें भारी बहस चल रही थी कुछ रहे थे जब वह हंसती है तो फंसती है | दूसरों का विचार था की वह फंसती है तो हंसती है |
·       स्त्रियाँ सीधी एकदम नहीं होती | यदि वे सीधी हो तो भेड़िया उन्हें तुरंत खा जाएगा | यदि वह सीधी दिखती है तो मर्द समाज को गच्चा देने के लिए, अपने बचाव के लिए, अपने किसी जटिल रहस्य को छुपाने के लिए या फिर किसी रहस्य का पता लगाने के लिए |
·       पुरुषों के आजादी से उसने इर्ष्या की और खुद थोड़ी सी आजाद होकर बहुत अधिक आजाद के रूप में देखी गई और ढेरों स्त्री-पुरुष के इर्ष्या का आजीवन शिकार होती रही |
·       मध्यवर्ग की आजाद ख्याल की स्त्रियाँ प्राय: अकेलेपन का शिकार होती हैं, उनके ह्रदय बंद, ईर्ष्यादग्ध और अति महत्वाकांक्षी होते हैं | मेहनतकश जमातों की आजाद ख्याल की स्त्रियों में सामूहिकता बोध होता है | वे एकता की कीमत पहचानती हैं क्योंकि एकता ही उन्हें मुक्त करती है |उनके दिल खुले होते हैं क्योंकि वे इर्ष्या और प्रतिशोध में नहीं जीतीं |
·       मध्यवर्गीय स्त्रियों के जीवन और मानस में समस्याएं अधिक अरूप, अमूर्त, एकांगी और अतिरेकी बनकर आती है क्योंकि वे परिप्रेक्ष्य से कटी होती हैं | चीजें लगातार एक सी बनी रहेंगी तो एक प्रचंड प्रतिबद्ध गुलाम मानसिकता वाली नारीवाद वाला मानस तैयार होगा |
·       अंत में यह कि ये सारी बातें पूरा सच नहीं है, आधा सच है | अगर ये पुरी सच होती तो दुनिया जीने लायक नहीं होती |
लेकिन फिर, यह सच है की लगातार लड़ते हुए ही जिया जा सकता है, सजग रहकर ही जिया जा सकता है , और अनेकों अप्रत्यशित मोहभंगों,वायदा खिलाफियों,विश्वासघातों, विफलताओं और पराजयों के लिए यथार्थवादी ढंग से तैयार होकर ही एक आशावादी के रूप में जिया जा सकता है |

क्रमश:
अर्पणा दीप्ति