अनुभूतियाँ मन के अंत:स्थल में अनेकानेक प्रतिक्रियाएं और
विचलन पैदा करती हैं. संवेदनशील
व्यक्ति मात्र निजी अनुभवों से ही विचलित नहीं
होता अपितु अपने आस-पास घटित होने वाली
घटनाएं भी उसे उद्वेलित करती हैं. विचलन का
विरेचन ही लेखन है. जीवन की निस्सारता, भीड़ में
भी अकेले रह
जाने की कसक, हाथों से सरकती रेत की मानिंद पल-पल छीजती उम्र, रिश्तों में ठगे
जाने
का एहसास…. और ऐसे कितने ही भूले-भटके भाव मन के आकाश पर उमड़-घुमड़ कर छातें हैं
और
बरस जाना चाहते हैं. कहने-सुनने की सीमा से परे जब मौन मुखर होना चाहता है तो
लिखना
अनिवार्य हो जाता है. लेखन स्व से संवाद है, आत्म का साक्षात्कार
है.
अर्पणा दीप्ति |
मन के निगूढ़ अंधकार में खदबदाते कहे-अनकहे सत्य शब्दों में ढल कर ही मुक्ति
पाते हैं..... और
मुक्ति भला कौन नहीं चाहता ? यह मुक्ति कामना
मनुष्य को कभी जंगलों में भटकाती है, कभी
धन, पद-प्रतिष्ठा के
चंगुल में फांसने का प्रलोभन बन जाती है, कभी देह के मायावी
लोक की
देहलीज़ पर ला खड़ा करती है और कभी अहसासों को
लफ्ज़ों का जामा पहनाने के जोखिम में
धकेल देती है. कोई नहीं जानता कि मनुष्य अपनी
जीवन यात्रा का चुनाव स्वयं करता है अथवा
कोई अज्ञात लिपि उसके भविष्य का निर्धारण
करती है. कोई नहीं जानता कि कुछ बेचैन रूहें
क्योंकर दर्दजा बन कर जीने के लिये
अभिशप्त होती हैं. अपने-पराये, सब का दर्द जिनके
भीतर
पलता है, परवान चढ़ता है और एक दिन ज्वालामुखी सा फूट पड़ता
है.... कूल-किनारे तोड़ता हुआ
अनुभूतियों से लबालब भरना और बह जाना, फिर से भरने की बाट
जोहना और दोनों हाथों से
उलीच देना, यही तो है लेखन. मैं
क्यों लिखती हूँ? यह सवाल कई बार पूछा गया है मुझसे. मैंने खुद
से भी
कई मर्तबा जानना चाहा है कि आखिर लिखना मेरे लिए लाज़िमी क्यों है? इतना ही कह
सकती हूं
कि गहरी उत्कंठा, छटपटाहट, असंतोष, वैचारिक ऊहापोह और
मेरे भीतर कसमसाती व्यग्रता
जब तक शब्दों का जामा ना पहन ले, मुझसे जिया नहीं
जाता | ऐसा लगता है कि मेरे अन्तर्मन में मुझसे ही छिपकर बैठा कोई हमसाया जो
सांसारिकता में उलझ कर भी कहीं दूर खड़ा साक्षीभाव से
दुनिया का तमाशा देखा करता है, लिखना उसी रूहपोश की
मानसिक खुराक है. जीवन में कई बार
यह साक्षीभाव छूटा और सालों-साल लिखना भी छूट
गया. तब भी मैं ज़िंदा थी, उम्र के कोस भी तय
हो ही रहे थे मगर हमेशा लगता था कि
कुछ है जो कम है. देकार्ते ने कहा था कि ‘मैं सोचता हूँ
इसलिए मैं हूं’ और मैं
कहना चाहती हूँ कि ‘ मैं लिखती हूँ इसलिए मैं हूँ ’
मन
रोजी-रोटी के सवालों से फारिग होकर
रोजी-रोटी के सवालों से फारिग होकर
कभी सच में मिलना मेरे हमसफ़र!
किसी बाग के कोने में
हरे-भरे छतनार पेड़ तले,
मेरा हाथ थाम कर मुझे
महसूस करना कभी,
मैं आज भी तुम्हारे स्पर्श
की तपिश में पिघलना चाहती हूं।
कानों में फुसफुसा कर
कोई भूली-बिसरी बात कहना
,
मुझे याद दिलाना कि मेरा होना
मुझे याद दिलाना कि मेरा होना
,
तुम्हारे जिन्दा रहने के लिए कितना जरूरी है !
तुम्हारे जिन्दा रहने के लिए कितना जरूरी है !
रोज सुबह एक ही घर की
साझी छत के नीचे
,
अलग-अलग कमरों में बैठे हम,
अलग-अलग कमरों में बैठे हम,
इतने दूर हो गए हैं
कि कदम भर का फासला
मीलों में बदल गया है।
अपने दिन-रात से दो पल
मेरे लिए चुरा कर
,
कभी सामने आ कर बैठो तो सही,
कभी सामने आ कर बैठो तो सही,
शायद उस पल मैं तुम्हें बता सकूं
कि एक अर्से से मेरा
तुमसे मिलने का मन है।
अर्पणा दीप्ति
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