शुक्रवार, 1 मार्च 2019

अलविदा दादा नामवर





नहीं रहे हिन्दी आलोचना के ब्रांड एमबेसडर नामवर सिंह | नामवर सिंह सही मायने में नामवर थे,सूफी परम्परा में एक कहावत है -'अच्छे लोगों को मरना अवश्य है ,लेकिन मौत उनके नाम को नहीं मार सकती  | पहले कुंवर नारायण सिंह ,केदारनाथजी ,कृष्णा सोबती ,अर्चना वर्माजी और अब नामवरजी | हिन्दी साहित्य धीरे-धीरे अनाथ होता जा रहा है | मानो ऐसा लग रहा है कि लगातार हम अपने दिग्गजों को श्रद्धांजलि देने के लिए अभिशप्त होते जा रहे हैं |

नामवर सिंह हिन्दी आलोचना के देदीप्यमान नक्षत्र थे , लगातार सम्वादरत आलोचक जिन्होंने लिखने से ज्यादा बोलकर यश कमाया | वह वाचिक परम्परा के आचार्य थे | ये आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे | एकबार किसी ने द्विवेदीजी से पूछा कि आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि उन्होंने कहा 'नामवर' | सही मायने में आज हिन्दी साहित्य का तीसरा मजबूत स्तम्भ समाप्त हो गया, एक युग का अंत हो गया |

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को बनारस के पास जीयनपुरा गाँव में हुआ था | इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम ए और पीएचडी की | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनके शोध निदेशक थे | कुछ दिनों तक बनारस विश्वविद्यालय में इन्होंने अध्यापन का कार्य किया | ये वामपंथी विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित थे | उन्हीं दिनों बतौर वामपंथी उम्मीदवार चुनाव में इन्हें करारी शिकस्त मिला | बनारस विश्विद्यालय के आंतरिक राजनीति से छुब्द्ध होकर सागर विश्वविद्यालय चले गये | बाद में ये दिल्ली जेएनयु में हिन्दी विभाग के संस्थापक विभागाध्यक्ष बने और वहीं से सेवानिवृत हुए | जेएनयु ने इन्हें प्रोफेसर इमेरिटस का दर्जा दिया था |

तकरीबन तीसियों से अधिक पुस्तक लिखकर इन्होने हिन्दी आलोचना साहित्य को समृद्ध किया|

किसी ने इनसे पूछा द्विवेदीजी से मूल शिक्षा क्या ग्रहण किया आपने ? इनका जबाव कुछ ऐसा था-

"चढिये  हाथी ज्ञान को सहज दुलीचा डाल |"

नामवरजी की दृष्टी में प्रेम की परिभाषा -" प्रेम पुमर्थों महान "

प्रिय पुस्तक -'रामचरितमानस"

प्रिय भोजन -'सत्तू'

प्रिय आलोचक -'विजय नारायणदेव शाही '

प्रिय कवि- 'रघुवीर सहाय' 
   
प्रिय कहानीकार- 'निर्मलवर्मा'

प्रिय उपन्यासकार -'फणीश्वरनाथ रेनू '

प्रिय निबंधकार -'हरिशंकर परसाई'

नामवर सिंह अकेले नहीं होते थे कलम उनका साथी  था लेकिन जब वे सही मायने में अकेले होते थे तो उनका मानना था -

"जब मैकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की कैद मस्जिद हो मदरसा हो कोई खाना ख्वाह हो |"

नामवरजी पुनर्जन्म में  विश्वास नहीं करते थे | प्रो. गोपेश्वर सिंह ने उनसे पूछा ऐसा कौन सा काम जिसे ना करने का अफसोस हो  नामवर सिंह ने कहा -

"हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे निकले दम "

 जब इनसे पूछा गया बनारस से उखड़कर दिल्ली आ बसने पर आपने क्या खोया क्या पाया ?
इन्होनें कहा -"आपा खोया सरोपा पाया "

इनकी स्वयं रचित प्रिय पुस्तक थी "दूसरी परम्परा की खोज "

92 साल की आयु में इन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया ,26 जुलाई को वे 93 साल के हो जाते थे | नामवरजी ने अच्छा जीवन जिया और बड़ा जीवन जिया |
नामवरजी के यार दोस्त रकीब उन्हें अपने तरीके से श्रद्धांजली दे रहे हैं | वटवृक्ष , छतनार, शिखर पुरूष, प्रथम पुरूष ,श्लाका पुरूष शीर्ष आलोचक इत्यादि | सही मायने में हिन्दी साहित्य और आलोचना की दूसरी परम्परा के ध्वजधारक का अंत हो गया |


अर्पणा दीप्ति 

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