औरतें केवल देह नहीं होती
इसी देह में इक कोख होती है
जो तुम सबका पहला घर है
अपने रक्त मांस से पोस कर जनमती है
तुम्हे
और तुम ईंट पत्थरों का घर बनाने के बाद
भूल जाते हो अपना पहला प्रश्रय
गाली देते हो उसी कोख को जहाँ ली थी
तुमने पहली सांस
तुम्हारी माँ बहनें बेटियां भी तो एक
देह ही है
ये सारी औरतें देह धरम निभाते निभाते
भूल गई थी अपना अस्तित्व
और मात्र देह बन कर रह गई थी --
चल रही थी दुनिया ये सारी सृष्टि एक
भ्रम में जीते हुये
और चलती ही रहती न जाने कब तक --
पर तुमने जगा दिया बार बार थूक कर
इन्हें लज्जित कर
औरत तुम सिर्फ एक देह हो सौ दिन की हो
या सौ साल की
आज फिर सृष्टि के बड़े आंगन में औरतों
की महापंचायत जुटी
सब ने समवेत स्वर में कहा --
यदि हम देह है तुम्हारे लिये तो तुम भी
तो देह ही हो
अंतर इतना है तुम कह देते हो हम कहते
नहीं
वरना तुम खड़े भी नहीं हो सकते किसी औरत
के सामने -
अचानक गूंज उठा दिगदिगान्तर उनके
ठहाकों से -
जिनसे प्रतिध्वनित हो रहा था बस एक ही
स्वर
यदि हम मात्र देह है तो तुम भी तो देह
ही हो
--- अर्पणा दीप्ति
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